बुधवार, 1 जुलाई 2015

योग को पहले समझिए फिर समझाइए!!!

21 जून को "अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" घोषित किया गया है। 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 193 सदस्यों द्वारा 21 जून को "अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से पारित किया गया, जो संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी दिवस प्रस्ताव के लिए सबसे कम समय है। इससे पहले 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योग के महत्व पर प्रकाश डाला था और ये प्रस्ताव सभी सदस्यों के सामने रखा था। ये वाकई बहुत खुशी की बात है कि योग के बारे में हम फिर बात कर रहे हैं। योग का प्रचार करने वाले भी एक ही मंच पर आ रहे हैं और योग के प्रति जागरूकता बढ़ाने की ओर भी ये एक महत्वपूर्ण कदम दिखाई देता है। मोदी जी ने सत्ता में आने के बाद गांव शहर की स्वच्छता के लिए अभियान की शुरूआत की थी। उसे एक उत्सव का रूप दिया था। इसके लिए बहुत प्रचार प्रसार भी किया गया और अब भी इस अभियान को आगे बढ़ाया जा रहा है। इसी धूम धाम के साथ योग को भी उत्सव का रूप दिया गया है और ये भी एक सराहनीय पहल कही जानी चाहिए। महत्वपूर्ण प्रश्न ये उठता है कि चाहे बाहर की सफाई हो या योग से भीतर की सफाई हो इस मकसद को क्या सही तरीके से लोगों तक पहुंचाने में कामयाबी मिल रही है? ये महत्वकांक्षी पहल है लेकिन क्या इसे सही तरीके से अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है?
स्वामी विवेकानंद
यूं तो भारतवर्ष का ठीक-ठीक इतिहास कोई नहीं बता सकता क्यूंकि हम पिछले कुछ 400-500 सालों के इर्द-गिर्द ही अपने इतिहास को खंगालते रहते हैं। हमारे इतिहास को मिटाने और दबाने की भी बहुत कोशिशें की गईं और बहुत हद तक आज के हालात देखकर ये लगता भी है कि उन कोशिशों में आने वाले समय तक लोगों को भ्रमित रखने की कितनी ताकत थी। वेदांत इतिहास की कहानी तो नहीं कहते लेकिन हमारी जड़ को जरूर समझाते हैं। समय-समय पर कई महापुरूषों का अवतरण हुआ और उन्होंने भारतीय वैदिक परंपरा को जन जन तक पहुंचाने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया। उन लोगों को निराशा हाथ लगेगी जो अभी तक की बातों को पढ़ने के बाद ये सोच रहे हैं कि वर्तमान के प्रयासों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। स्वामी चिन्मयानंद से ऑस्ट्रैलिया में एक इंटरव्यू के दौरान प्रश्न पूछा गया था कि भारत में जाति, धर्म की जो परिभाषाएं हैं उसे वैश्विक कैसे कहा जा सकता है? भारत में धर्म को लेकर तर्कसम्मत बात नहीं की जाती है? इस प्रश्न के जवाब में स्वामी जी ने बहुत ही सुंदर जवाब देते हुए कहा था कि सिर्फ भारत में ही धर्म को लेकर तर्कसम्मत बात की जाती है बाकी देशों में धर्म का मूल तत्व ही अभी किसी को समझ में नहीं आया है। वेदांत की बातों को घुमा फिराकर नए ग्रंथों की रचना तो कर ली गई लेकिन उन्हें समझाने की प्रक्रिया पर ध्यान नहीं दिया गया। जैसे अलग अलग काल परिस्थिती के लोगों के लिए भोजन, परिधान आदि अलग अलग होते हैं वैसे ही ईश्वर प्राप्ति के मार्ग अलग अलग बना लिए जाते हैं लेकिन वे जाते एक ही तरफ हैं और उनके सिद्धांत भी एक ही होते हैं। आप चर्च में हो, मस्जिद में या मंदिर में सिर्फ कर्मकांड और बाहरी आवरण में बदलाव है मूल रूप से रास्ता एक ही है। ये रास्ता वेदांत दर्शन या हमारा योग शास्त्र ही दिखाता है।
स्वामी जी ने इस बात को भी स्वीकार किया था कि सही तरीके से वेदांत को जानने वालों की कमी की वजह से आज बहुत सी भ्रांतियां भारत में फैल गईं हैं। वर्तमान में अंधविश्वास या आस्था के नाम पर खिलवाड़ करने वाले लोगों ने इसी कमी का फायदा उठाया और पूर्ण रूप से निजता के विषय आध्यात्म और ईश्वर प्राप्ति को व्यवसाय का स्वरूप दे दिया। विवेकानंद अपने समय में इस बात को समझ गए थे और वेदांत की अद्भुत शक्ति के बावजूद उसके पूरी दुनिया में होते उपहास से व्यथित भी थे। यही वजह रही कि बिना संसाधनों और बिना किसी सुख सुविधा के वे यायावर की तरह पूरे देश का भ्रमण करते रहे। सचमुच योग को विश्व के सामने रखना का उनका जुनून उन्हे शिकागो धर्म सभा में ले गया। इस भाषण के बाद पूरी दुनिया में उनके द्वारा वेदांत दर्शन के प्रचार और मात्र 39 वर्ष के अपने छोटे से जीवन काल में तमाम ग्रंथों के भाष्य से पूरी दुनिया परिचित ही हैं। आज एक बार फिर उन्हीं विवेकानंद को याद किया जा रहा है, योग की शक्ति को भी याद किया जा रहा है जितने भी संस्थान इन महान योगियों द्वारा स्थापित किए गए थे उनमें कार्यरत कर्मचारी भी अपनी अपनी तरह से इस उत्सव का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
स्वामी शरणानंद
अब महत्वपूर्ण प्रश्न ये है कि चाहे वे विवेकानंद हों, योगानंद हों, स्वामी चिन्मयानंद हों या ऐसे कई महान योगी हुए जिन्होंने योग का सही मायने में प्रचार किया, इनकी तरह योग को जानने वाले और मानव कल्याण के लिए समर्पित लोग हमारे बीच क्या आज भी हैं? हमें किसी भी काम को सीखने के लिए विशेषज्ञों की जरूरत पड़ती है। क्या योग को सचमुच जानने वाले विशेषज्ञ हमारे पास हैं? इसका उत्तर अतीत के तमाम योगीजन कई मौकों पर दे चुके हैं। उनका कहना था कि हमारा वेदांत दर्शन हमें अद्वैत सिखाता है। दूसरा कोई नहीं है, यानि भेद का मिट जाना ही अद्वैत है। वेदांत दर्शन के सारतत्व को गीता में भगवान की वाणी के तौर पर रखा गया और वहां भी योग को बहुत ही रोचक और सहज अंदाज में समझाया गया। कालांतर में महान ऋषि पतंजलि ने योग को सूत्रों में ढाला और समझाने की कोशिश की। फिर इन ग्रंथों को इस तरह से लिखा गया ताकि किसी भी काल परिस्थिती का व्यक्ति इसके सार तत्व को समझ पाए। संकेतों और कथाओं के आधार पर लिखे जाने वाले इन ग्रंथों के जानकार भी बनते चले गए और उन्हें समाज में विशेष सम्मान भी दिया गया। ये परंपरा बहुत समय तक चलती रही लेकिन फिर विदेशियों की कुदृष्टि और एक के बाद एक हुए हमलों ने एक जबरदस्त हलचल पैदा कर दी। अतीत के योगियों ने पहले भी इस बात को कह दिया था कि इस तरह कि स्थितियां पहले भी बनती रही हैं और आगे भी बनती रहेंगी। हमारी संस्कृति की जड़ वेदांत को नहीं छोड़ेंगे तो हम हजार बार गिरकर फिर खड़े हो जाएंगे। गिरावट का ये दौर आया और स्वाधीनता के बाद से हम लड़खड़ाते लड़खड़ाते खड़े हो रहे हैं। हमारे मूल तत्व वेदांत का किसी धर्म या मजहब से कोई लेना देना नहीं बल्कि इन्हें समझ लेने वालों के नाम पर तो लोगों ने खुद ही धर्म बना डाले।
योगी का कोई धर्म मजहब नहीं होता और न ही योग का। योग धर्म का मूल है। जब आप के भीतर वासनाओं का उठना बंद हो जाता है, आपके विचारों का कोलाहल थम जाता है आप किसी से प्रेम या घृणा नहीं करते हैं वरन हर परिस्थिति में आप सम रहते हैं तो ये योग की स्थिति होती है। हमारे वेदांत दर्शन और गीता को पढ़ेंगे तो आप जान जाएंगे कि इन्ही बातों को समझाने के लिए ये प्रयास किए गए थे। कुछ विद्वानों ने मोहवश अपने बच्चों तक ही इसे सीमित रखने का प्रयास किया। उन्होंने इसे अपनी बपौति बनाने की कोशिश की और अपने ही बच्चों को इसकी शिक्षा दी। ये ज्ञान को अपने पास जकड़कर रखने की राजनीति की शुरूआत थी। जैसे ही ज्ञान में मिलावट होती है वैसे ही उसका ह्रास होने लगता है। हमारे बेशकीमती योग के साथ भी यही हुआ। योग की प्राप्ति जिन्हें नहीं हुई थी उन्होंने भी गलत सलत योग सिखाना शुरू कर दिया। जो खुद भ्रमित है वो कैसे किसी को राह दिखा सकता है। हुआ भी यही धीरे धीरे योग धर्म विशेष का बन गया, फिर कुछ लोगों ने खुद को इससे दूर करना शुरू कर दिया तो कुछ लोगों ने बिना इसे जाने समझे इसे अपने अहं से जोड़ लिया।
आज एक प्रयास हो रहा है लेकिन यहां समत्व को प्राप्त कितने योगी आपको समाज का नेतृत्व करते दिखते हैं? स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में हाथ पांव मोड़कर शारीरिक जिमानास्टिक का नाम योग नहीं है। योग तो मन में उठने वाली विचारों की तरंगों के पूरी तरह रुक जाने और एक ईश्वर में या ओंकार में स्थित होने का नाम है। जो प्रश्न करते हैं ऐसा कैसे हो सकता है? उन्हीं लोगों के लिए वेदांत दर्शन, उपनिषद और फिर महान पुस्तक गीता को लिखा गया, लेकिन हमने इन्हें कपड़े में लपेटकर कर मंदिर में रख दिया और अपने धर्म की बपौति बना लिया। जो इनका विरोध कर रहे हैं वे तो मूर्ख हैं ही जो इन्हें अपना बताकर फूले नहीं समां रहे हैं वे भी मूर्ख ही हैं। योग हर मानव मात्र के उत्थान के लिए है, लेकिन राजनीति और व्यवसाय के हावी होने की वजह से इसका बहुत ही नाटकीय रूप हमारे सामने आ रहा है। जब बुद्ध निकले थे तो किसी यूएन का ठप्पा उन्हें नहीं लगाना पड़ा था और योग को उन्होंने सिर्फ देश ही नहीं विदेशों तक पहुंचा दिया था। जिन्हें योग और बुद्ध के संबंध को समझना है उन्हें भी वेदांत का रुख करना होगा। बुद्ध ने उस समय सही ज्ञान के नाम पर मिलावट करने वाले लोगों से बचने के लिए कहा था। आज भी कमोबेश वैसी ही स्थिती है योग तो आवश्यक है लेकिन उसके नाम पर यदि भोग में ही लगे हुए हैं तब तो बेड़ा पार लगना मुश्किल है।
योगानंद परमहंस
योग के आवश्यक और अनावश्यक होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। असली प्रश्न है क्या योग पढ़ाने वाले खुद योग समझ पाए हैं? यदि नहीं तो क्या खाक योग का प्रचार होगा और क्या खाक योग की महिमा दुनिया गाएगा। राजनीति हमेशा योग के सामने बौनी रही है। राजपाट छोड़ने वाले बुद्ध को राजनेताओं की जरूरत नहीं पड़ी बल्कि अशोक, हर्षवर्धन और ऐसे जाने कितने राजाओँ के बुद्ध के न होने के बावजूद, उनकी शरण में जाना पड़ा। हमें दुनिया जानती भी हमारी इसी खासियत की वजह से है। रोमन, ग्रीक और जाने ऐसी कितनी पुरातन सभ्यताएं अब कहानियों में ही मिलती हैं लेकिन हम आज भी हैं। बेशक टूटा फूटा समझते हैं लेकिन कुछ कुछ बातें तो जानते ही हैं। ऐसा भी नहीं है कि योग को जानने वाले बचे ही नहीं हैं लेकिन पाश्चात्य देशों से हमने जो व्यवसाय की तकनीक सीखी है उसमें चकाचौंध के जरिए लोगों को आसानी से भ्रमित किया जा सकता है।
हम सबकुछ नकल करने लगे हैं। हमारा रहन सहन, सुविधाजनक जीवन, तकनीक तक तो बात ठीक है लेकिन इनके साथ ही जब वेदांत के संस्कारों पर हमला होने लगा तो हालात खराब होने लगे। एक पीढ़ी के खत्म होने में ज्यादा समय नहीं लगता है। छोटे से जीवन में कब हम जवान और फिर बूढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से कुछ बातें सीखती है तो उस दौर में उपलब्ध वस्तुओं, परिस्थितियों और तकनीक के आधार पर अपनी बुद्धि का विकास करती है। सनातन परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी योग को जीवन के अनिवार्य अंग के रूप में हस्तांतरित किया जाता था। आज योग के नाम पर भी भोग की ही दुकानें देखने को मिलती है। योग को कारपोरेट रंग देकर इसे दुकान पर बिकने वाली वस्तु बना दिया गया है। जो लोग आज योग के बहुत ही सतही रूप को अपनाते भी है तो वो भी सुंदर और सुडौल दिखने के लिए। दरअसल योग का मतलब प्रबल इच्छाशक्ति के साथ वासनाओं और चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः शमन बताया गया है। ये उसी व्यक्ति के लिए संभव हो सकता है जिसका शरीर भी स्वस्थ हो। स्वस्थ शरीर योगी के लिए एक साधन मात्र होता है जबकि आज तो योग का मकसद ही जैसे स्वस्थ शरीर बनाना भर रह गया है। योग को समझेंगे तभी योग को समझा पाएंगे। ये विवेकानंद के युग में भी असंभव कार्य लगता था। शंकराचार्य के समय तो ये और भी दुष्कर काम था लेकिन बिना किसी प्रचार प्रसार और तकनीक का इस्तेमाल किए उन्होंने इसकी हानी को खत्म करते हुए इसकी पुनर्स्थापना की। हर युग में इसी तरह योग सिखाने के तरीकों में मिलावट हो जाती है। इसी तरह सिखाने वालों की गुणवत्ता भी गिरती जाती है।
स्वामी चिन्मयानंद
फिर क्या किसी अवतार का इंतजार करना चाहिए? स्वामी विवेकानंद और उनकी तरह कई अन्य योगी ये बात बहुत स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि हम सब में वही असीम संभावनाएं हैं जो बुद्ध में या शंकराचार्य में थी। ठीक इसी तर्ज पर स्वामी शरणानंद का विचार था कि हम सभी को वो महान जीवन मिल सकता है जो कभी भी किसी भी महापुरूष को मिला है। अपना चेहरा चमकाना या भक्तों की भीड़ जमा कर लेना योग नहीं है ये तो भोग की ही पराकाष्ठा है जिसका अंत किसी अन्य भोग की तरह कष्ट में ही होता है। आज के दौर में भ कुछ संतों ने सराहनीय काम किया है और बहुत हद तक वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाया है लेकिन योग का राजनीति से कोई मेल नहीं है। इसे आम जन से जोड़ने के लिए प्रचार प्रसार से ज्यादा उस समर्पण की जरूरत होगी जो बीते समय के तमाम योगियो ने दिखाया है। वाकई भारत में विश्वगुरू बनने की क्षमता है क्यूंकि पाश्चात्य दर्शन में वासनाओं के शमन और विचारों के कोलाहल पर पूर्ण विराम जैसी योग की स्थितियों पर कभी विचार ही नहीं हुआ। पाश्चात्य संस्कृति भोग को बढ़ाने से पल्लवित पुष्पित हुई है। हम उनकी नकल करेंगे तो उन्हें बचाने वाला तो कोई नहीं बचेगा साथ ही हम खुद को भी बर्बाद कर लेंगे। तकनीक और विज्ञान के दौर में मानव सभ्यता के विकास के लिए उपयोगी बातों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योग ही है। हम एटम से एनर्जी बनाते हैं या बम का विवेक योग देता है। ये विवेक और प्रज्ञा का जागरण सिर्फ योग से संभव है। योग भारत की जड़ों में है और इस विरोध या समर्थन की कोई आवश्यकता नहीं। ये सच है कि इसे लेकर यदि पाखंड किया जाएगा तो इसके प्रति लोगों का सम्मान कम होगा और इसे सही तरीके से रखा जाएगा तो किसी जद्दोजहद की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।



मंगलवार, 30 जून 2015

स्वामी चिन्मयानन्द और सत्य की खोज

स्वामी चिन्मयानन्द
(8 मई 1916 - 3 अगस्त 1993)

स्वामी चिन्मयानन्द जी का जन्म केरल में एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम बालकृष्ण था। उनके पिता एक न्यायधीश थे। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में सन 1940 में प्रवेश लिया। लखनऊ विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करने के बाद बालकृष्ण ने पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। उनके लेख मि. ट्रैम्प के छद्म नाम से प्रकाशित हुए। इन लेखों मे समाज के गरीब और उपेक्षित व्यक्तियों का चित्रण था। एक तरह से ये उस समय के सरकार और धनी पुरुषों का उपहास था। इसी समय वे स्वामी शिवानंद से प्रभावित हुए और उनसे संन्यास की दीक्षा ले ली।  वेदांत दर्शन को जन जन तक पहुंचाना स्वामी चिन्मयानन्द ने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों में भी उन्हें वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता रूप में स्वीकार किया गया। आध्यात्म को तर्कसम्मत बनाकर उसे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अंग के रूप में उन्होंने अपने शिष्यों को दिया। उनका मानना था कि दुनिया की तमाम पुरानी सभ्यताएं इतिहास का हिस्सा बन गईं और किताबों तक सिमट कर रह गई लेकिन सनातन परंपरा के मूल तत्व वेदांत की वजह से वैदिक धर्म को कोई नष्ट नहीं कर पाया। गीत ज्ञान-यज्ञ के जरिए उन्होंने वेदांत के सार को अपने शिष्यों के समक्ष रखा। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाते हुए 1953 में  चिन्मय मिशन की स्थापना की गई, जो आज भी देश विदेश में सक्रिय रूप से उनके विचारों का प्रचार कर रहा है। वैदिक परंपरा को समझाने के लिए उन्होंने युवाओं को प्रेरित किया और इन युवाओं को तैयार कर देश भर में इसके प्रचार के लिए लगाया। वे मानते थे कि वेदांत को न समझकर सिर्फ कर्मकांडों में फंसे रहने की वजह से हम लगातार पिछड़ते हुए दिखाई देते हैं। अपने मिशन के तहत उन्होंने हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि की भी उन्होंने शुरूआत की। उन्होंने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। स्वामी चिन्मयानन्द जी ने अपना भौतिक शरीर 3 अगस्त 1993 ई. को अमेरिका के सेन डियागो नगर में त्याग दिया।

स्वामी चिन्मयानंद और सत्य की खोज

अपने जीवन के लक्ष्य को क्षूद्र दायरों में नहीं बांधना चाहिए। छोटे लक्ष्य की प्राप्ति होने के बाद जीवन समाप्त हो जाता है। जैसे शादी ब्याह में घर की महिलाएं बहुत मेहनत मशक्कत करती हैं और जब बेटी विदा हो जाती है तो थक कर चूर हो जाती हैं और इतनी बुरी हालत में होती हैं कि खाना तक पड़ोसी आकर खिलाते हैं। इस थकान की वजह है लक्ष्य का खत्म हो जाना, उत्साह का खत्म हो जाना। जीवन में ऐसे लक्ष्य को स्थापित करें जिसे पाया ही न जा सके। लक्ष्य प्राप्ति जीवन नहीं है, लक्ष्य प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना जीवन है। जीवन के इस उच्चतम लक्ष्य को समझाते हुए स्वामी चिन्मयानंद ने तर्कसम्मत तरीके से सत्य की खोज को समझाया। उन्होंने ने शरीर, मन और बुद्धि को संचालित करने वाली वासनाओं से मुक्त होने पर जोर दिया। ये तब तक संभव नही है जब हम अपने भूतकाल के अनुभवों और उनसे बनने वाली अपनी इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त नहीं हो जाते हैं। वेदांत हमें पहले ही इस सत्य को भली भांति समझा चुके हैं। वेदांत के सार गीता में इस सत्य की प्राप्ति के लिए इंद्रिय संयम के महत्व और उसके लिए किए जाने वाले अभ्यास को भी भगवान कृष्ण की वाणी में समझाया गया है। सत्य दुनिया के हर व्यक्ति के लिए एक ही है। काल, परिस्थिति की वजह से जो बाह्य विभाजन दिखते हैं उससे मानव मात्र के मूल सत्य का कोई लेना देना नहीं है, वो हम सब के लिए एक ही है। जैसे विभिन्न देशों में रहने वालों का अपनी परिस्थिति के आधार पर रहन सहन और खान पान अलग अलग होता है, ठीक वैसे ही सत्य की प्राप्ति के विभिन्न तरीकों को ईजाद कर लिया गया। जिसे जो बेहतर लगता है उसे अपनाकर उस सत्य की प्राप्ति करनी चाहिए जिसे हम कभी न समाप्त होने वाला आनंद कहते हैं। हम जितना ही सुख प्राप्ति के लिए भागते हैं उतना ही आनंद से दूर होते जाते हैं। इस सतत परिवर्तन शील संसार में जब सब कुछ तेजी से बदल रहा है तो आनंद कैसे स्थायी रह सकता है? इस प्रश्न का जवाब बहुत सुंदर ढंग से स्वामीजी ने अपने शिष्यों के समक्ष रखा। परिवर्तन शील संसार को हम अपने शरीर, मन और बुद्धि से देखते और समझते हैं। जिस तरह कार को चलाने के लिए पैट्रोल और बल्व को चलाने के लिए बिजली की आवश्यकता पड़ती है, ठीक वैसे ही हमारे शरीर, मन और बुद्धि को वासनाएं चलाती हैं। जब तक वासनाएं हमें चला रही हैं हम कभी उस सत्य को नही पा पाएंगे जिसे हम ईश्वर कहते हैं। सत्य या ईश्वर की प्राप्ति के लिए आपका स्वयं को जानना और स्वाधीन होना आवश्यक है। वासनाओं की गुलामी से ऊपर उठते ही आप परम स्वाधीनता का अनुभव करते हैं। ऐसे स्वाधीन जीवन को ही चैतन्य जीवन कहा जाता है। इस चैतन्यता के साथ ही हम स्वयं को जानते हैं और शरीर, मन और बुद्धि हमारे अधीन होते हैं न कि हम उनके अधीन। हमारे अनुभव और इच्छाएं ही वासना के मूल में हैं यदि विचारों को विराम देकर हम इच्छाओं और वासनाओं को काबू कर लें तो हम सत्य का अनुभव कर पाएंगे। वेदांत किसी धर्म विशेष के लिए नहीं है। जब हम जड़ मान्यताओं से ऊपर उठकर इनके मूल तत्व को समझते हैं तो हम जान जाते हैं कि कभी न खत्म होने वाले अनंत आनंद की कुंजी इसी में छिपी हुई है।

सोमवार, 29 जून 2015

आचार्य श्रीराम शर्मा और सत्य की खोज

पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य 
(२० सितम्बर १९११ - ०२ जून १९९०)


संपूर्ण जगत के कल्याण के लिए अपने जीवन को समर्पित करने वाले मनीषियों में आचार्य श्रीराम शर्मा का भी नाम शुमार है। सतत कर्मयोग और समर्पण को ही वे सत्य की खोज मानते थे। बहुत छोटी उम्र से ही वे समाज में इंसान-इंसान के बीच भेद को लेकर व्यथित रहते थे। कम उम्र में ही आध्यात्म के प्रति उनकी गहरी रुचि हो गई थी। पं. मदन मोहन मालवीय ने उन्हें यज्ञोपवित और गायत्री मंत्र से दीक्षित किया था जिसके बाद उन्होंने अपने जीवन को इस शक्तिशाली मंत्र के अनुसंधान में समर्पित कर दिया। एक संपन्न परिवार में जन्में आचार्य जी आध्यात्मिक संपदा को ही असली संपत्ति मानते थे। अपने शिष्यों को उन्होंने आध्यात्म की शक्ति के बारे में बताते हुए कई बार अपना उदाहरण देते हुए बताया कि यदि अपने परिवार और अपनी संपदा तक ही उनका जीवन सीमित रहता तो कभी गायत्री परिवार जैसा बड़ा लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता। आचार्य श्री प्रज्ञा जागरण को ही आज का योग मानते थे। उनका कहना था भौतिक जगत के विकास के साथ-साथ प्रदूषण और अविवेक का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। प्रदूषण सिर्फ बाहर ही नहीं है, हमारे विचार और संस्कार भी दूषित होते जा रहे हैं। ऐसे समय में आध्यात्मिक जागरण की आवश्यकता अधिक है। प्रज्ञा जागरण के साथ ही ईश्वर स्वयं सत्य की खोज का मार्ग प्रशस्त करन लगते हैं। वेदों और प्राचीन ग्रंथों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किए गए उनके टीका बहुत लोकप्रिय हुए। उनका मानना था कि सिर्फ किताबों को पढ़ने या व्याख्यानों को सुनने भर से आध्यात्मिक जागरण नहीं होता है। वे हर एक से अपनी शक्ति को पहचानने और जीवन को महत्वपूर्ण कार्यों में लगाने पर जोर देते रहे।


ब्राह्मण परिवार में जन्में आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपनी सत्य की खोज में जाना कि कोई ब्राह्मण पैदा नहीं होता उसे ब्राह्मण बनना होता है। उनकी इस बात का जाति से कोई लेना देना नहीं था। वेदों आदि में ब्राह्मण शब्द की महिमा को समझाते हुए वे ये समझाना चाहते थे कि ब्राह्मण वही है जो सत्य की खोज कर लेता है। अपनी क्षूद्र वासानओं और अपने मोह से बनाए संबंधों के लिए जीवन बिता देने को वे एक महत्वपूर्ण और कीमती जीवन को बर्बाद कर देने वाला मानते थे। आजीवन कर्मयोगी रहे आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने शिष्यों को भी एक ही सिद्धांत कि सतत शिक्षा दी। बोओ और काटो। वे मानते थे कि आध्यात्म का स्वांग करने या झूठे कर्मकांडों से सत्य की प्राप्ति नहीं होती है। सत्य को प्राप्त करने के लिए अपने कर्मों के बीज बोने पड़ते हैं। समय, श्रम, ज्ञान और संपदा के बीज बोने पर उनका जोर था। हमें मिली एक एक श्वांस महत्वपूर्ण कार्यों को करने के लिए है। अपने प्रत्येक पल का सदुपयोग ही समय के बीज का सही रोपण है। वे सोने, खाने एवं अन्य नित्यकर्मों में लगने वाले अपने समय के लिए भी क्षमा मांगते हुए कहते थे कि ये समय मैंने अपने लिए खर्च किया जो मुझे समय की बर्बादी लगती है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मानवमात्र के कल्याण केकी  लिए उन्होंने अपने जीवन को किस तरह समर्पित कर रखा था। अखंड ज्योति जैसी समाज सुधार की पत्रिका या उनके द्वारा किया गया वेदों का भाष्य हो, इस सबके लिए उन्होंने कठिन परिश्रम किया। अपने जीवन के अंतिम समय तक वे देश भर का भ्रमण करते रहे, शिष्यों को व्याख्यान देते रहे। ज्ञान का बीज तभी रोपा जा सकता है जब बुद्धि पर हमारा नियंत्रण हो। अभीष्ट कार्यों सिद्धि और अनिष्ट कार्यों से दूरी ही बुद्धि की शक्ति है। मजबूत इच्छाशक्ति इस ज्ञान का पैमाना है। जिनमें जनकल्याण की भावना है, आत्मशोधन का सपना है वे ही बुद्धिमान है। आचार्य जी के पास पिता की संपत्ति थी लेकिन उन्होंने संपत्ति का मोह न कर अपनी संपदा का बीज मानव कल्याण के लिए बो दिया। कर्मयोग से सत्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने एक सरह सिद्धांत अपने शिष्यों के समक्ष रखा। वे कहते थे ज्वार, बाजरे या गेंहू का एक बीज बोते हैं तो सैंकड़ों बीज मिलते हैं। इसी तरह समय, श्रम, बुद्धि और संपदा के बीज को बोने से सैकड़ों बीज फल रूप मिलते हैं। अपने जीवन को आदर्श के रूप में बोने से आप करोड़ों जीवन कैसे आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर कर सकते हैं का भी आचार्य जी एक बड़ा उदाहरण रहे हैं। सत्य की खोज करने वालों के लिए उनका निर्देश बहुत स्पष्ट था, आप के जीवन में यदि क्षूद्र वासानाएं और इच्छाएं हैं तो ये जीवन व्यर्थ ही गंवा रहे हैं। सत्य पाना है तो समर्पण का भाव होना चाहिए। विश्व और मानव मात्र में ही ईश्वर के विराट स्वरूप को देखकर समर्पण करना ही सत्य की खोज का मार्ग है। आध्यात्म के पथ में असफलता का प्रश्न ही नहीं उठता है और आचार्य जी के जीवन से भी ये स्पष्ट हो जाता है। वे प्रत्येक श्वांस के साथ जीवन के लक्ष्यों को उच्चतर स्तर पर ले जाने पर जोर देते थे। जिस तरह कच्ची धातु को तपाकर उसमें से धातु को निकाला जाता है ठीक उसी तरह से तप से मन और विचारों को भी शुद्ध किया जाता है। आतंरिक स्वच्छता ही सत्य की खोज के लिए एक उपजाऊ भूमि देते है। जब प्रज्ञा जागृत होती है और आतंरिक भूमि उर्वरा होती है तो सत्य की खोज सहजता से हो जाती है। जल, अक्षत, धूप, फूल, नैवेद्य को वे दयालू प्रवृत्ति, अर्जित धन का मानव कल्याम में सदुपयोग, चिंतन और कर्म की सुगंध, मन की कोमलता और व्यवहार और वाणी की मिठास के रूप में निरूपित करते थे। वे मानते थे कि इस पंचोपचार से आज की देवी प्रज्ञा का पूजन ही सत्य की खोज है।

शुक्रवार, 26 जून 2015

विभिन्न समाचार पत्रों में सत्य की खोज की समीक्षाएं....

हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित सत्य की खोज की समीक्षा


नवभारत टाइम्स में सत्य की खोज
दैनिक भास्कर के रसरंग में सत्य की खोज
हरिभूमि में सत्य की खोज

Satya ki khoj Navodaya Times
satya ki khoj in Live India Magazine

Satya ki khoj Punjab Kesari
satya ki khoj in Prajatantra Live

satya ki khoj Veer Arjun

बुधवार, 24 जून 2015

निस्वार्थ भाव सत्य का मूल

कैफी आजमी साहब की मशहूर गजल देखी जमाने की यारी…. को मैं बहुत पसंद किया करता था उसकी पहली चार पंक्तियां कुछ इस तरह हैं....
देखी जमाने की यारीबिछड़े सभी बारी बारी
क्या लेके मिले अब दुनियाँ सेआँसू के सिवा कुछ पास नहीं
या फूल ही फूल थे दामन मेंया काँटों की भी आस नहीं
मतलब की दुनिया है सारीबिछड़े सभी बारी बारी

मैं आपका प्रेम भी चाहूं तो स्वार्थी हूं।

इसे गाने में बहुत मजा आता था और मजेदार बात ये कि इसे मैंने सुना बाद में पढ़ा पहले था। इस गजल से मेरी पहचान हुए तो बरसों बीत गए लेकिन इसके मतलब को समझने की कोशिश अब भी जारी है। मतलबी दुनिया में हर बात का मतलब होता है और हर बात में मतलब होता है। जीवन के उतार चढ़ाव और निजी अनुभवों ने भी की मतलबियों और मतलब की दुनिया से सचमुच रूबरू करवाया है। एक बात जो समझ में आई वो ये कि मतलब की दुनिया सारी। जब दुनिया सारी बोलते हैं, तो क्या अपना-पराया, क्या खास और क्या आम, सब इसकी जद में आ जाते हैं। आज ये बात लिखने की शुरूआत एक रेडियो प्रोग्राम के सुनने के बाद की। एक पोता अपने पिता द्वारा दादा के साथ किए व्यवहार से दुखी था। पिता दादा को चलने में असहाय और भूलने के रोग से ग्रसित होने के बाद परेशान होकर वृद्धाश्रम छोड़ आया था। पोते ने अपने पिता को समझाने के लिए एक रेडियो जॉकी की मदद ली। पिता को बात समझ में आई या नहीं ये तो राम जाने लेकिन मतलब की दुनिया के उदाहरणों के ढेर में ये एक कूड़ा और जुड़ गया। जब तक मां बाप से मतलब होता है तब तक वो सब कुछ लगते हैं। फिर इन बच्चों के जब बच्चे हो जाते हैं तो अपने बच्चों में ये अपनी जान या स्वार्थ को बसा देते हैं। उनसे मतलब है भविष्य में नाम रौशन करवाने का या वंश आगे बढ़ाने का। बुढ़ापे की लाठी तो बहुत ही लोकप्रिय जुमला है भी।
इस उदाहरण को रखना इसीलिए जरूरी है क्यूंकि जब रिश्तों के इतने महत्वपूर्ण किरदारों के बीच ही मतलब या स्वार्थ छिपा है तो फिर बाकी दुनिया की क्या कहें। हाल में मीडिया की एक बड़ी दिग्गज हस्ती से मुलाकात में उन्होंने भी इस बात को स्वीकारा कि जब तक बल्ला चल रहा है ठाठ है। ये बात एक मशहूर क्रिकेटर ने अपने कठिन समय के दौरान एक कमर्शियल में कही थी लेकिन बात बहुत ठीक कही थी। मीडिया के जिस धुरंधर ने क्रिकेटर की ये बात उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल की वो दरअसल अपने रसूख की हकीकत को समझा रहे थे। उन्होंने कहा कि जब तक मैं इस कुर्सी पर हूं तब तक लोग लल्लो चप्पो कर रहे हैं, जिस दिन ये कुर्सी गई चमचों की जमात भी चली जाएगी। स्वार्थ से भरपूर इस दुनिया में हर कोई एक दूसरे से मिलते हुए अपने अपने हितों को साधने में लगा हुआ है। इसमें ज्यादा बुरी बात ये है कि संबंधों की शुरुआत के मूल में ही स्वार्थ है।
व्यवसायिक जगत में स्वार्थ होना या किसी मकसद से मेल मुलाकात करना बहुत सामान्य बात है, बल्कि इसे तो अच्छे व्यवसायी कि निशानी भी माना जाता है कि वह लोगों से कितना ज्यादा मिलता जुलता है, और अपनी संभावनाओं को कितना विस्तारित करता है। मैक्स गुंटेर ने अपनी किताब लक फैक्टर में इसे भाग्य को चमकाने का महत्वपूर्ण तरीका भी बताया है। जहां तक भाग्य का संबंध नई संभावनाओं के व्यवसायिक हितों में परिवर्तित होने तक है ये फार्मूला सौ फीसद काम करता है लेकिन जब ये निजी संबंधों और जीवन में भी घुल जाता है तो ऐसा स्वार्थी इंसान व्यवसायी तो बन जाता है अच्छा इंसान कभी नहीं बन पाता।
मतलब की ये मिलावट दोस्तों या अपने नजदीकी कहे जाने वाले दोस्तों में तो दूर की बात है आपके भीतर बसे परमात्मा की जो छद्म छबि आपने बना रखी है उसमें भी है। आज भगवान के किसी भी मंदिर को ले लीजिए अपने टुच्चे कामों को करवाने के अलावा ज्यादातर लोग ईश्वर की कोई और आवश्यकता ही महसूस नहीं करते। अब प्रश्न ये है कि भाई सब ऐसा ही करते हैं ऐसा ही चला आ रहा है, आपकी परेशानी क्या हैपरेशानी सिर्फ इतनी है कि जब हम सब अपने भीतर झांक कर ये सवाल पूछेंगे तो सभी को ये जवाब मिलेगा कि ये स्वार्थ की दुनिया बहुत बदसूरत है और इस दुनिया और इसके उसूलों को बनाने वाला इसे ऐसा तो नहीं बना सकता। निश्यय ही हम लोगों के स्वार्थ ने इसे ऐसा बना दिया है। कबीर ने स्वार्थ पर बहुत कुछ लिखा है उनके अनुसार....

स्वारथ के सबहीं सगेबिन स्वारथ कोउ नाहि। 
सेवे पंछी सरस तरू, निरस भये उड़ जाहि।। 

जब तक स्वार्थ है, सभी सगे बने रहते हैं। स्वार्थ हटा तो अपने भी पराये बन जाते हैं। वृक्ष जब तक रसदार है पंछी उसका सेवन करते हैं नीरस होते ही पंछी तक उसे छोड़कर दूसरी जगह चले जाते हैं। कबीर ने इसे प्रकृति की भी बाध्यता बताया है, हांलाकि दोहों इत्यादि में उदाहरणों और अलंकरणों के रूप में प्रकृति आदि को लिया जाता है लेकिन ये बात सच है कि मतलब कि दुनिया में जहां नजर दौड़ाइये मतलब ही मतलब है। अब प्रश्न ये है कि मतलब की इस कथित मजबूरी के बावजूद ज्ञानियों ने इसे विष के समान क्यूं बताया है? इस प्रश्न का जवाब ढूंढना कोई मुश्किल काम नहीं है बस अपने जीवन और रिश्तों के प्रति थोड़ा सतर्क होने की जरूरत है। जब आप किसी महत्वपूर्ण पद पर हैं या किसी अन्य के लिए कुछ करने की स्थिती में हैं तब आप पाएंगे लोग मिठाई पर मक्खी की तरह आपके इर्द गिर्द भिनभिनाएंगे। वे मिठाई की तरह आपको दूषित तो करेंगे ही साथ ही आप किसी अन्य के लिए भी हानिकारक होते जाएंगे। दरअसल स्वार्थ की दुनिया में स्वार्थ सिद्धि के लिए किस्म किस्म की तरकीबों का इस्तेमाल किया जाता है, इनमें प्रेम का दिखावा, खास होना, नजदीकी होना, आपके स्वार्थ की सिद्धि करने का लालच होना जैसी अनगिनत तरकीबें हैं। आप यदि खास और आम के चक्कर में पड़े हुए हैं तो आप स्वार्थ सिद्धि के इस जाल में निश्चित ही फंसे हुए हैं। आप यदि लोगों के झूठे प्रेम के जाल में फंसे हैं तो निश्चित ही आपको सच्चा प्रेम कभी नहीं मिलेगा। यदि आप स्वयं स्वार्थी हैं और किसी अन्य से स्वार्थ सिद्धि के लिए छल कर रहे हैं तो निश्चित मानिए ये आपके अपने निजी जीवन और विचारों को भी दूषित कर देगा।
मैं जीवन में जब सत्य की खोज करता हूं तो लोगों के जीवन को पढ़ता हूं। उनके अनुभव को गुरू ज्ञान मानता हूं। ऐसे कई जीवंत उदाहरण मेरे सामने हैं जिन्हें लोग तो सफल और सुखी मानते हैं लेकिन वे स्वयं अवसाद ग्रस्त हैं, अशांत हैं। इनमें से ज्यादातर शराब आदि के नशे में अपने झूठे जीवन को भूलना चाहते हैं। कई मनोचिकित्सकों के चक्कर लगा रहे हैं तो कई इतने बुरे स्तर पर हैं कि अब जैसे है वैसे ही जीवन को सत्य मान कर बैठ गए हैं और अपनी कुंठा को अपने इर्द गिर्द कूड़े की तरह बिखेरते रहते हैं।
सही जीवन क्या हैस्वार्थ से इतर जीवन में क्या करेंजब सब ऐसे ही जीते हैं तो अलग जीने वाले क्या कर लेते हैंबहुत से प्रश्न अंधकार से भरे मन में उठ सकते हैं। इनके जवाबों पर अलग से काफी कुछ लिखा कहा भी जा सकता है और सच पूछिए तो पहले ही ज्ञानी सब कुछ कह गए हैं, हां हम आजमाते नहीं हैं और इसीलिए इन बातों को फिर से याद करने और याद दिलाने की जरूरत पड़ती है। स्वामी शरणानंद कहते हैं जीवन का मूल उद्देश्य होना चाहिए अपने अधिकारों का त्याग और दूसरे के अधिकारों की रक्षा। चाहे आपका निजी जीवन हो, सामाजिक जीवन हो या व्यवसायिक जीवन जरा इस बात को आजमाने की कोशिश करें। जब आप दूसरों के अधिकारों की रक्षा करते हैं तो सचमुच के प्रेमी और हितैषी अपने आस पास पाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो ज्ञान का ये सूप आपके इर्द गिर्द मित्रों के रूप में मौजूद कचरे को बाहर फेंक देता है। स्वार्थ से निश्चित ही हानि और अशांति है तो निस्वार्थता से निश्चय ही शांति और सत्य की प्राप्ति होती है। धन है और हितैषी नहीं हैं तो आप बस झूठे लोगों की लल्लो चप्पो में अपने जीवन का आनंद तलाशते रहेंगे। धन नहीं भी है और निस्वार्थ होकर काम कर रहे हैं तो कबीर की तरह लोग आपको युगों युगों तक याद रखेंगे। कबीर के ही एक दोहे में जरा निस्वार्थता से जीवन जीने के मतलब को समझिए।
निज स्वारथ के कारनेसेवा करे संसार।
बिन स्वारथ भक्ति करेसो भावे करतार।।

संसार में स्वार्थ की वजह से सेवा की जाती है। बिना स्वार्थ के की जाने वाली भक्तिपरमात्मा को भी पसंद है|  आपने यदि गौर किया हो तो निस्वार्थता से कार्य करने के मूल में भी ईश्वर को प्रसन्न करने का मतलब आ जाता है। जहां मतलब आ गया समझ लो काम दूषित हो गया। निस्वार्थता की इस स्थिती को पाने के लिए जीवन के हर कार्य में स्वयं के स्वार्थ को देखने की कला आनी जरूरी है। स्वार्थ को देखना कोई मुश्किल काम नहीं। जब स्वार्थ होता है तो वो छिपकर काम करता है। आप किसी भी कार्य को करने के पहले यदि स्पष्ट मन से उसकी कार्य योजना पर विचार करते हैं तो आपको छद्म तरकीबों की कोई जरूरत ही नहीं होती है। जब भी कोई काम करें अपने निज स्वार्थ पर नजर रखें, चाहे वो आपके निजी जीवन में ही क्यूं न हो। जब आप अपने हित से ज्यादा अपने आसपास के लोगों और फिर समाज के हित के बारे में सोचने लगते हैं तो आप सचमुच आनंद के अधिकारी बन जाते हैं। जिन क्षूद्र चीजों को पाने के लिए आप बेवजह के दंद फंद करते हैं वे भी सहजता से आपके चरणों की दासी बन जाती हैं। आप क्यूं नहीं पा लेतेकुतर्की मन के बहुत सवाल होते हैं। हमें ऐसा करने से सचमुच कोई लाभ होगा या नहीं? ये भी स्वार्थ से पैदा हुआ ही सवाल है। निस्वार्थ होकर देखिए सभी सवाल जड़मूल खत्म हो जाएंगे।drpraveentiwari@gmail.com www.satyakikhoj.com 

शुक्रवार, 15 मई 2015

कुछ ज्यादा पाने की चाह


चाहे आप जो हों, चाहे जितना ज्यादा या कम कमाते हों, चाहे जितने योग्य या अयोग्य, चाहे किसी मजहब या संस्कृति के मानने वाले हों... हम सभी में एक बात सामान्य है कि हम अपनी वर्तमान परिस्थिति से कुछ बेहतर और अधिक पाने की चाह रखते हैं। किसी भी व्यक्ति की सफलता का आंकलन भी उसकी अतीत की परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितियों में आए परिवर्तन के आधार पर किया जाता है। यदि सामाजिक और आर्थिक रूप से कोई अपने बीते समय के मुकाबले बेहतर दिखता है तो उसे सामान्य तौर पर सफल मान लिया जाता है। भौतिक जगत में हम सभी की अपनी वर्तमान परिस्थितियों के मुकाबले भविष्य में बेहतर परिस्थितियां निर्मित करने की आदत के मूल में यही बात होती है। ये भी सत्य है कि आप चाहे जिन हालात में हो और जिस भी हालात में पहुंचने की जद्दोजहद कर रहे हो, वहां पहले से कोई पहुंचा हुआ है और वो इससे इतर अपने लिए कुछ ज्यादा पाने की चाह में  जद्दोजहद कर रहा है।
योगानंद परमहंस
आध्यात्मिक यात्रा ही विवेक की यात्रा है और विवेक पूर्ण विचार निजता का विषय है। जब सही प्रश्न उठें और उनका समाधान अपने भीतर ही मिल जाए तो विवेक का पूर्ण जागरण होता है। दूसरों की गलतियों से सीख लेने वाला, अपनी गलतियों से सीख लेने वालों के मुकाबले अधिक ज्ञानी होता है। हर बात को आजमाकर देखने की आवश्यकता नहीं होती क्यूंकि उनके सामान्य परिणाम उनके अच्छे या बुरे होने को बयां कर देते हैं। उदाहरण के लिए अनियमित दिनचर्या और असंयमित भोजन से होने वाली हानि के लिए इनका अनुभव करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। शत प्रतिशत उदाहरण और नतीजे इनसे होने वाली हानि की ओर इशारा करते हैं। कुछ ज्यादा पाने की चाह आपको सामाजिक रूप से आगे तो दिखाती है लेकिन ये भूख कभी शांत नहीं होती।

स्वामी शरणानंद
लौकिक जगत की प्राप्तियों के संदर्भ में जो सिद्धांत है वो अलौकिक जगत के संदर्भ में नहीं है। लौकिक वो है जो आपकी नजरों के सामने है और अलौकिक वो जो आपकी लौकिक दृष्टि से परे है। अलौकिक यात्रा में कुछ और पाने की चाह आपको कुछ भी नहीं पाकर सब कुछ पा लेने की स्थिति में ले जाती है। आप जो भी कर रहे हैं जिस भी परिस्थिति में हैं और जिस भी योग्य है खुद को बेहतर करते जाएं लेकिन संतुष्टि का भाव तभी आएगा जब आप आध्यात्मिक उन्नति की तरफ उत्तरोत्तर वृद्धि का प्रयास करेंगे। योगानंद परमहंस के शब्दों में आपके वर्तमान में किए गए आध्यात्मिक प्रयास ही भविष्य की हर कामयाबी का आधार होंगे। स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में, कुछ ज्यादा पाने की चाहत करनी ही है तो उस जीवन को पाने की चाहत कीजिए जो कभी भी किसी भी महामानव को मिला है।

सोमवार, 4 मई 2015

Satya Ki Khoj: Book by Dr. Praveen Tiwari: Reviews in Various Newspapers

हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित सत्य की खोज की समीक्षा


नवभारत टाइम्स में सत्य की खोज
दैनिक भास्कर के रसरंग में सत्य की खोज
हरिभूमि में सत्य की खोज

Satya ki khoj Navodaya Times
satya ki khoj in Live India Magazine

Satya ki khoj Punjab Kesari
satya ki khoj in Prajatantra Live

satya ki khoj Veer Arjun