सोमवार, 27 अप्रैल 2015

स्वामी विवेकानंद और सत्य की खोज

सत्य की खोज पुस्तक के लिए मो. मुस्लिम द्वार बनाया
गया स्वामी जी का रेखा चित्र। (copy right)
 स्वामी विवेकानन्द (जन्म- 12 जनवरी, 1863, कलकत्ता (वतर्मान कोलकाता), भारत; मृत्यु- 4 जुलाई, 1902, रामकृष्ण मठ, बेलूर) एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन व क्रम, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। स्वामी विवेकानंद के जन्म के 150 साल हो गए हैं। आज भी वो युवाओं के लिए वो एक आदर्श हैं। आज की भाषा में उनकी जबरदस्त ह्यफैन फॉलोईंगह्ण है। उनकी कई किताबें हैं जो आज भी बेस्ट सेलर की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। पूरे देश में उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ही नहीं बल्कि ढेर सारे संस्थान उनके विचारों और सपने को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस सबके बावजूद ये सवाल भी बहस में उठाया जा रहा है कि स्वामी विवेकानंद के विचारों का क्या आज का युवा सचमुच सम्मान कर रहा है? इसमें कोई संदेह नहीं की चाहे आध्यात्म हो, विज्ञान हो, वैश्विक शांति हो या युवाओं को उत्साहित करने का जादू हो हर मोर्चे पर स्वामी विवेकानंद के आसपास भी कोई दिखाई नहीं पड़ता लेकिन क्या उन्हें पढ़ लेने मात्र से, उनकी तस्वीरों को दीवारों पर टांग देने मात्र से या फिर उनके नाम पर नित नए संस्थानों का निर्माण कर देने मात्र से ही हम उनके सपने को पूरा कर पाएंगे? वसुधैव कुटुंबकम का संदेश पूरी दुनिया को देने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति और संस्कार पर जिस गर्व के साथ पूरी दुनिया में खुद को खड़ा किया क्या आज हम उसी गर्व के साथ खुद को दुनिया के सामने खड़ा करने के काबिल हैं? दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल ने इस वर्ष स्वामी विवेकानंद पर एक विशेष कार्यक्रम अवेकनिंग इंडिया का प्रसारण किया और सौभाग्य से इस कार्यक्रम में अपने विचार रखने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया। स्वामी विवेकानंद को पढ़ना और उनके विचारों से प्रभावित होना किसी भी भारतीय के लिए शायद कोई बड़ी बात न हो और कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी है। मैंने फौरन इस प्रस्ताव पर हामी भर दी। साल भर चले इस कार्यक्रम में देश की कई जानी हस्तियों के साथ स्वामी जी के जीवन, विचारों और आज के दौर में उनकी उपयोगिता पर काफी बातचीत हुई। स्वामी जी के प्रति सम्मान और बढ़ गया और एक इच्छा जागृत हुई कि काश हम उनके समझ लें, उनकी सुल लें तो वाकई विश्व गुरू बन सकते हैं क्योंकि जिस युवाशक्ति पर वो पूरी जिंदगी जोर देते रहे उसकी सबसे बड़ी तादाद आज हमारे ही पास है। (फोटो के साथ कैप्शन) ह्यह्यभारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारित्र्य है। चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें। सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।ह्णह्ण यूं तो हिंदुस्तान की बढ़ती हुई आबादी हमारे लिए चिंता का सबब है लेकिन इस चिंता मे भी सुकून देने वाली बात ये है कि इस आबादी का ज्यादातर हिस्सा युवा है, यानि हमारे देश दुनिया के सबसे ज्यादा युवा हैं। युवाओं में असीम ऊर्जा और शक्ति होती है और यही युवा भविष्य के निर्माता भी हैं। युवा शक्ति की दिशा ही किसी राष्ट्र की दशा को तय करती है। देश का युवा भटक गया तो राष्ट्र भटक सकता है और राष्ट्र का युवा सही रास्ते पर चल दे तो राष्ट्र की प्रगति निश्चित है। स्वामी जी ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि धर्म और संस्कृति किसी भी राष्ट्र की जड़ होती है और जब तक जड़ पर प्रहार नहीं होता राष्ट्र अखंड बना रहता है। आज स्वामी जी के विचारों के क्रियान्वयन की जितनी जरूरत महसूस होती है उतनी तो शायद इनके उद्गार के वक्त भी नहीं थी। जिस समय स्वामी विवेकानंद ने भारत भ्रमण शुरू किया तब उनके सामने अशिक्षा और रूढियों से जूझता भारत था लेकिन आज इन चुनौतियों के अलावा संस्कृति के लगातार हो रहे ह्रास को बड़ी चिंता माना जा सकता है। भारत की तरफ पूरी दुनिया की नजर सिर्फ इसीलिए नहीं है कि यहां के बाजार पर पकड़ बनाने का मोह उन्हें है बल्कि भारत को संस्कारों के उत्थान के लिहाज से भी उम्मीद की नजर से देखा जाता है। ये कोई नई बात नहीं है कि दुनिया के कई दिग्गज भारत में शांति और आध्यात्मिकता की तलाश में भारत आते रहे हैं और अब भी आते हैं। भारत की गरीबी और अशिक्षा को हमेशा ही पाश्चात्य देशों ने बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है लेकिन ये भी सच है कि दुनिया के कई दूसरे देशों के मुकाबले हमारी स्थिति बहुत दयनीय है भी। क्या सिर्फ ढोंग और पाखंड को आगे बढ़ाते हुए हम विश्व गुरू बन सकते हैं और दुनिया भर की उम्मीदों को पूरा कर सकते हैं? जाहिर है जवाब ना में ही होगा और जब विवेकानंद ने इस सवाल को भारत के सामने रखा तब भी जवाब यही मिला। ये बात और है कि उनके रहते उनका जो जादू और उनमें जो विश्वास तमाम भारतवासियों में दिखाई पड़ता था वो अब नहीं दिखाई पड़ता। आज भी एक तरफ स्वामी जी के विचार और उनकी बातों को सामने रखने वाले कई विद्वान मिल जाएंगे लेकिन पाखंडी बाबाओं की तादाद और उनके मानने वाले ऐसा लगता है ज्यादा तादाद में हैं। जिस वक्त स्वामी विवेकानंद पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे उस समय भी देश पाखंडियों की जकड़ में था। अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने हमेशा ध्यान में डूबे रहने से ज्यादा तवज्जो देशवासियों के उत्थान में दी। ये उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय विचारों में से एक है कि बजाय गीतापाठ के अगर युवा फुटबॉल खेले तो अपने स्नायू मजबूत करके समाज और देश के ज्यादा काम आ सकता है। ये भी सत्य है कि गीता की मीमांसा करते हुए और श्रीकृष्ण के बारे में अपने विचार रखते हुए उन्होंने इस प्रचंड युवा शक्ति को सकारात्मक दिशा में मोड़ने का ज्ञान गीता में ही होने की बाद को भी पुरजोर तरीके से रखा। यहां वो ये समझाने चाहते थे कि गीता ज्ञान से पहले खुद को स्वस्थ्य,पुरजोर तरीके से दुनिया के सामने रखा। ये जरूर है कि वो गीता ज्ञान से पहले स्वस्थ्य शरीर और ऊर्जावान बनने पर ज्यादा जोर देते थे। ये हम सब जानते है कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मन निवास करता है और इसी से असीम युवा ऊर्जा का इस्तेमाल सकारात्मक रूप से हो सकता है। आज का युवा भटका हुआ दिखता है, हांलाकि इसे पूरे देश के युवाओं की स्थिति कहना गलत होगा। लेकिन जिस तेजी से बाजारवाद ने युवाओं को बड़े शहरों में आकर्षित किया है वो चिंता का विषय है। ऐसा नहीं है कि युवाओं ने हमें शमर्सार ही किया हो बल्कि इन्ही युवाओं में वो भी शामिल है जो देश को गौरवान्वित भी करते हैं। खेल हो, राजनीति हो, साहित्य और कला जगत हो हर मोर्चे पर युवा अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। बदले माहौल में सामाजिक मुद्दों को सड़कों पर लाने का काम भी देश का यही युवा कर रहा है। प्रश्न ये है कि क्या उसकी ऊर्जा का सही इस्तेमाल किया जा रहा है? जिस तरह से वो अपनी जड़ों से कटता जा रहा है और शराब और दूसरे नशों की जद में आता जा रहा है उससे चिंता बढ़नी लाजिमी है। स्वामी विवेकानंद भी चाहते तो पूरे देश के युवाओं का बीड़ा उठाने के बजाय खुद के ध्यान में मस्त रह सकते थे लेकिन उन्हे पता था कि उनके जीवन का मकसद खुद का सुखभोग नहीं बल्कि भारत के विश्वपटल पर गुरू के रूप में स्थापित करने का प्रयास करना है। वो ये भी कह चुके हैं कि उनका काम ऐसा नहीं जो एक जीवन काल में पूरा हो जाए पर उन्हे पूरा विश्वास था कि उनकी तरह देश में 50-60 युवा भी उभरकर सामने आ गए तो इस सपने को पूरा होने से कोई नहीं रोक पाएगा। आज हमारे देश का युवा पूरी दुनिया में छाया हुआ है दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं जहा भारतीय युवकों ने अपनी जगह न बनाई हो। इसे भारत के लिहाज से कई बार नुकसान दायक भी कहा जाता है और ब्रेन ड्रैन की संज्ञा दी जाती है, लेकिन स्वामी जी इस बात से आज बहुत खुश होते कि वसुधैव कुंटुंबकम आज जितना साकार दिखता शायद उतना कभी नहीं था। ये बात सच है कि हमारे युवाओं का सम्मान घर में रहते हुए होने के बजाय बाहर जाकर ज्यादा होता है। यहां तक की खुद स्वामी विवेकानंद जब शिकागो में भाषण देने के बाद भारत वापस आए तो उनका स्वागत एक विजेता कि तरह हुआ। हांलाकि वो विदेश जाने से पहले भी अपनी इन्हीं बातों को रखते रहे थे। उन्होंने विदेश यात्रा के दौरान दूसरी संस्कृतियों को जाना समझा और उनका सम्मान भी किया। इन देशों को लेकर बहुत सी नकारात्मक बातें उन्होंने भी सुन रखी थी लेकिन बचपन कि बिना आजमाए किसी बात को न मानने वाली आदत कि वजह से वो कभी किसी सुने सुनाय पूर्वाग्रह से पीडि़त नहीं रहे। आज के युवा के साथ बड़ी समस्या अंधानुकरण और बिना जांचे परखे बातों को मान लेना ही दिखाई पड़ती है। हम सड़कों पर भीड़ तो देखते हैं लेकिन क्या देश का ये भविष्य वाकई जानता है कि वो क्या कर रहा है? राजनीति में युवा चेहरों को लाने कि युवा शक्ति को तवज्जो देने की बात तो कही जाती है लेकिन क्या वाकई में सही मायनों में वो स्वामी जी के भारत जागरण के सपने को समझने की कोशिश कर रहे हैं और क्या बहस से इतर उन्हें हकीकत में वो तवज्जो दी जा रही है जिसके वो हकदार हैं? अंधी प्रतियोगिता के युग में सबको साथ लेकर चलने से ज्यादा जोर सबसे आगे निकलने पर है। बिना जांचे परखे हमारा युवा इस दौड़ में शामिल होता जा रहा है। अच्छी बात ये है कि हालात अभी बहुत नहीं बिगड़े हैं या ये कह सकते हैं कि ये हमारी संस्कृति की मजबूती है कि हम आज भी अपने नाम को बचाए रखने में कुछ हद तक कामयाब दिखाई पड़ते हैं लेकिन कब तक ? ये अहम सवाल है। स्वामी विवेकानंद का हमेशा मानना रहा कि हमारी परंपरा और संस्कृति का सम्मान सिर्फ हमारे लिए ही नहीं अपितु पूरे विश्व के कल्याण के लिए आवश्यक है। ये बात और है कि अब हम खुद इस चिंता में कि क्या हमारी ये धरोहर और स्वामी जी के ये विचार हमारे ही काम आ पा रहे हैं या नहीं? देश के गरीबों और जरूरतमंदों में ही शिव का निवास है। इनकी सेवा करने का मतलब ही भगवान की सेवा करना है। महामारी से जूझ रहे लोगों की सेवा के लिए अपने आश्रम तक को बेच देने की बात कहने वाली स्वामीजी का ये मानना था कि इस देश के जरूरतमंदों की मदद को जब तक अपने जीवन का लक्ष्य नहीं माना जाएगा देश का कल्याण नहीं होगा। यही वजह थी कि युवाओं को वो हमेशा ऊर्जावान बने रहने और तमाम परेशानियों और कष्टों के बावजूद आगे बढ़ते रहने की सलाह देते थे। आज का युवा दूसरों में बुराइयां देखने, सिस्टम को गरियाते रहने के बजाय खुद को स्वामी जी के सपने को पूरा करने के लिए जिम्मेदार माने तो ही बात बन सकती है। उनका कहा और लिखा बहुत कुछ हमारे बीच है लेकिन कितने युवा इस सपने को आगे बढ़ाना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं? आज का युवा एक दूसरे से होड़ में लगा है। उसका मकसद अपनी तरक्की और बेशुमार दौलत और शोहरत ही दिखाई पड़ता है। वैसे पूरी दुनिया की यही हालत है तो भारत इससे अछूता कैसे रह सकता है लेकिन हमारी संस्कृति में आज भी युवा विवेकानंद को पढ़ता है और उनमें से कुछ उनको समझते भी हैं। आज के दौर में युवा शक्ति के क्षरण की वजह नशाखोरी बनती जा रही है। इस पर लगाम लगाने के लिए कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है। हाल के दिनों में जो घिनौनी घटनाएं सामने आई हैं वो भी बताती है की नशा कैसे इंसान को जानवर बना देता है। साथ ही घरों में शुरूआत से बच्चों को किस किस्म की शिक्षा दी जा रही है ये भी बहुत अहम है। आज डॉक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी, गायक, पत्रकार और जाने क्या क्या बनाने का प्रयास तो किया जा रहा है लेकिन सभ्य नागरिक और समाज के लिए उपयोगी मनुष्य बनाने पर किसी का विचार नहीं। आज ये विचार 'आउटेडेट' कहे जाने लगे है। लेकिन जरा गौर से सोचें तो क्या अब जीवन सहज होने के बजाय ज्यादा दूभर और परेशानियों से भरा दिखाई नहीं देता? क्या आज का युवा जल्दी हताश नहीं हो जा रहा है? क्या इनमें छोटी-छोटी बात पर थोड़ी-थोड़ी देर में खतरनाक गुस्सा नहीं देखने को मिल रहा है? आज विवेकानंद की जरूरत पहले से ज्यादा है सच तो ये है कि वो होते तो युवाओं की देश में बढ़ती तादाद पर खुश होते लेकिन उनकी ऊर्जा के सकारात्मक इस्तेमाल को नहीं देखकर व्यथित भी होते।

Daily Quote- Abraham Lincoln on True Religion


शनिवार, 18 अप्रैल 2015

M. P. Chief Minister Shivraj Singh Chauhan with Satya ki Khoj

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सत्य की खोज की प्रति भेंट करते पुस्तक के लेखक डॉ. प्रवीण तिवारी। सत्य की खोज पुस्तक को प्रभात प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है। मूल रूप से एक संपूर्ण और सफल व्यक्तित्व निर्माण की ओर अग्रसर करने वाली इस पुस्तक के बारे में देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं ने भी अपनी सकारात्मक समीक्षाएं लिखीं हैं। ये पुस्तक आज की भागदौड़ और प्रतियोगिता से भरी जिंदगी में युवाओं के लिए एक सच्चा मार्ग दर्शन है। इस पुस्तक में सत्य को प्राप्त हुए लोगों के विषय में भी महत्वपूर्ण जानकारियां दी गईं हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात जो ये पुस्तक समझाती है वह ये कि सत्य एक ही है। सत्य हम सब के भीतर मौजूद है। सत्य का किसी धर्म, मजहब या पूजा पाठ के तरीके से कोई लेना देना नहीं है। ईश्वर के सच्चे स्वरूप को समझाने जैसे जटिल विषय को भी इस पुस्तक में सहजता से पाठकों के समक्ष रखा गया है। ये पुस्तक प्रमुख बुक स्टॉल्स के अलावा amazon.com पर भी उपलब्ध है।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

Satya Ki Khoj in Various Newspapers (Navbharat Times, Dainik Bhaskar, Punjab Kesari, Navodaya Times, Veer Arjun, Prajatantra Live, Live India Magazine)

नवभारत टाइम्स में सत्य की खोज
दैनिक भास्कर के रसरंग में सत्य की खोज
हरिभूमि में सत्य की खोज

Satya ki khoj Navodaya Times
satya ki khoj in Live India Magazine

Satya ki khoj Punjab Kesari
satya ki khoj in Prajatantra Live

satya ki khoj Veer Arjun

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

योगानंद परमहंस और सत्य की खोज (सत्य की खोज पुस्तक का अंश)

अनुशासन को योगानंद ने योग की प्राप्ति के लिए प्राथमिक आवश्यक्त माना। वे खुद गुरू शिष्य परंपरा से योग को प्राप्त हुए थे इसीलिए उन्होंने योग की प्राप्ति के लिए विशेषज्ञों के मार्गदर्शन को जरूरी बताया। जब आप सत्य की ओर अग्रसर नहीं हुए हैं तो असत संसार से बाहर निकलना बहुत कष्टकारी होता है। बार-बार दुनिया का लालच आपको आकर्षित करता है। योगानंद कहते थे कि वर्तमान की शांति और सुंदरता में जीने वालों का भविष्य अपना ध्यान खुद रखता है। आप वर्तमान में आनंद और शांति में है और अपने वर्तमान की सुंदरता का आनंद ले रहे हैं तो भविष्य का आनंददायी होना आवश्यक है। हम वर्तमान में भविष्य के व्यर्थ चिंतन में लगे हैं तो निश्चित ही वर्तमान की अनदेखी होगी और जिसका वर्तमान नहीं होता उसका कोई भविष्य भी नहीं होता। वे इसके लिए ध्यान और ईश्वर स्मरण को ही उत्तम कर्म बताते हुए कहते हैं कि आप हाथी को काबू कर सकते हैं, शेर का मुंह बंद कर सकते हैं, आग-पानी पर चल सकते हैं, लेकिन सबसे उत्तम और मुश्किल काम है अपने मन पर काबू करना।

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

"इस पुस्तक को पढ़कर मुझे यह लगा की मेरा जीवन सफल हो गया है।" - स्वामी गंगाराम

एक विचार
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"सत्य की खोज " एक पुस्तक जो मेरे योग्य शिष्य श्री डॉ प्रवीण तिवारी ने लिखी हेै, मुझे 1 दिन पूर्व ही प्राप्त हुई। इसके कुछ अंश ही पढ़ पाया हूं किन्तु थोड़ा सा पढ़ने पर ही यह लिखने के लिए मजबूर हो गया हूं... "इस पुस्तक को पढ़कर मुझे यह लगा की मेरा जीवन सफल हो गया है।" इस बारे में आज इतना ही।
स्वामी गंगाराम
नाद ब्रह्म ध्यान योग धाम इंदौर
Unlike · Comment ·  

स्वामी गंगाराम का जन्म 1949 में महू के नजदीक एक गांव में हुआ था। पारिवारिक माहौल अध्यात्मिक था और स्वयं उनकी भी आध्यात्म में सामान्य बच्चों जितनी ही रूचि थी। हम सब के जीवन में आध्यात्मिक जागृति के पहले भी इसके जागरण की एक सतत प्रक्रिया चलती रहती है और हम सवालों के जरिए अपने जीवन का ही अनुसंधान करते रहते हैं। स्वामी गंगाराम भी जीवन की घटनाओं और संबंधों का अध्ययन करते रहे। कबीर, रहीम, दादू के दोहों और गीतों की मालवा में एक पुरानी परंपरा रही है। इन संतों की रचनाओं से स्वामी गंगाराम का संबंध तो रहा पर उन्होंने इनके अर्थों को ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही समझा। वे अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं कि वे बचपन से ही इंद्रयातीत ध्वनि को सुनते थे लेकिन उसका अर्थ नहीं समझते थे। सतत ब्रह्मांड में चलती रहने वाली इस ध्वनि को ही हम नाद ब्रह्म कहते हैं। गंगाराम जी ने एलएलबी की पढ़ाई करने के बाद वकालत को अपना पेशा बना लिया। इस पेशे के दौरान उन्होंने घोर असंयमित जीवन जिया। वे आगे चलकर न्यायाधीश के प्रतिष्ठित पद पर भी विराजमान हुए। इस पूरे सफर के दौरान उनके मन में एक प्रश्न बना रहा कि आखिर सत्य क्या है और सतत परिवर्तनशील जीवन में ऐसी कौनसी अवस्था है जो हमें ठहराव दे और अपने अस्तित्व को जानने का अवसर भी। दुर्व्यसनों और असंयमित जीवनचर्या ने उन्हें बुरी तरह कमजोर किया और वे सत्य के लिए विचलित हो उठे। साल 1997 में उन्हें जानलेवा लकवे का दौरा पड़ा। इस दौरे के साथ ही वे ईश्वर से मृत्यू की मांग करने लगे। 2 महीने तक बिस्तर पर पड़े पड़े उनमें आध्यात्मिक चेतना जागृत हुई। उनके अनुयायी इसे उनके आध्यात्मिक रूपांतरण के रूप में भी देखते हैं। उन्हें सत्य का अनुभव होने लगा और जिस आवाज को वे महज कौतुहल वश सुना करते थे उसे उन्होंने और गंभीरता और रस के साथ सुनना शुरू कर दिया। विचारों का पूर्णतः निरोध होने के बाद उन्हें सत्य के दर्शन हुए और वे ज्ञान को प्राप्त हुए। वर्तमान समय के क्रांतिकारी और सच्चे संतों में उनका नाम शुमार है। वे ढोंग ढकोसलों के खिलाफ जागरूकता फैला रहे हैं। उन्होंने नाद ब्रह्म योग धाम संस्थान की स्थापना की, जिसके जरिए अब वे जन जन को उस ब्रह्मनाद से परिचित करवा रहे हैं जिसे कबीर, नानक, दादू आदि ने शब्द और नाम के रूप में संबोधित किया है।

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सत्य की खोज पुस्तक का उद्देश्य (पुस्तक का अंश)


इन शब्दों को पढ़ते हुए जरा शब्दों की बनावट पर गौर करिए। अपने इर्दगिर्द के माहौल के प्रति सतर्क हो जाइए। अपनी श्वांस की गति पर जरा नजर दौड़ाइये। जरा अपने विचारों को देखने का प्रयास कीजिए। कुछ देर के लिए वर्तमान के प्रति सजग हो जाइए। विचारों को देखिए। कोई विवेचना नहीं। कुछ देर रुकिए और वर्तमान को महसूस कीजिए।..........
जैसे ही आप वर्तमान के प्रति सजग होते हैं एक नवीन और बेहतर दुनिया आपके सामने होती है। आज के वक्त की सबसे बड़ी दिक्कत है मनुष्य का एक काल्पनिक दुनिया में जीना। वो जहां है उस पल को छोड़कर अपने विचारों से पूरी दुनिया का भ्रमण कर रहा है। वर्तमान के प्रति सजगता ही उसे सत्य जीवन के दर्शन करा सकती है। व्यव्हारिक जीवन में वह कई चुनौतियों को अपने समक्ष पाता है। इनमें चिंताएं, प्रतियोगितावादी संसार की भागदौड़, रिश्तों में कड़वाहट, और अधिक पाने की दौड़, अप्राप्त परिस्थिति का चिंतन प्रमुख हैं। इस पुस्तक में इन सभी विषयों पर प्रकाश डाल कर इनके कारण और निवारण पर विचार किया गया है। दुनिया में जितने भी सत्य को प्राप्त हुए लोग या संत दिखते हैं उनकी सत्य की खोज की विधियों में कोई अंतर नहीं था। सत्य की खोज का तरीका और सभी तरीकों में समानता पर भी इस पुस्तक में रौशनी डाली गई है। भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा युवा निवास करते हैं। युवा ऊर्जा को सकारात्मक रूप से पल्लवित किया जाएगा तो हमें एक सुखद भविष्य मिलेगा। स्वामी विवेकानंद का स्वप्न था कि भारत विश्व गुरू बने। वे इस बात पर भी जोर देते थे कि आध्यात्म हमारी जड़ों में है और हमें इसे नहीं छोड़ना चाहिए। व्यव्हारिक जगत में आध्यात्मिक सोच के साथ कैसे बढ़ा जाए, इस विषय पर भी ये पुस्तक एक समाधान प्रस्तुत करती है। आज आध्यात्म को अंधविश्वास की दुकान बनाया जा रहा है। बड़ी तादाद में लोग अनैतिक बाबाओं के दरवाजों पर जा रहे हैं। इसकी बड़ी वजह है उनकी आध्यात्म के प्रति श्रद्धा और बेहतर विकल्प का सामने नहीं होना। इसी देश ने विवेकानंद, शरणानंद और जे कृष्णमूर्ती जैसे वैज्ञानिक सोच रखने वाले क्रांतिकारी संत दिए हैं। सही मायनों में गीता का ज्ञान, योग या सत्य क्या है, इस पर भी इस पुस्तक में विचार किया गया है। काम, क्रोध, लोभ, अनासक्ति ये सारी बातें हम सुनते तो हैं, इनके शाब्दिक अर्थ भी जानते हैं, लेकिन जीवन में इनके व्यव्हारिक इस्तेमाल से हम अनभिज्ञ ही हैं। सरल भाषा और वर्तमान परिस्थितियों में इन विषयों पर प्रकाश डालने का भी प्रयास इस पुस्तक के माध्यम से किया गया है।
भाग्य को लेकर कई मान्यताएं हैं आखिर भाग्य क्या होता है और सत्य की खोज में इसका क्या योगदान है इस विषय पर भी सारगर्भित जानकारी इस पुस्तक के माध्यम से दी गई है। अंत में निर्विचारता को प्राप्त कर वर्तमान में ही जीने की विभिन्न विधियों का विवेचन भी किया गया है। मन को काबू करना किसी मदमस्त हाथी को काबू करने से भी मुश्किल है एक बार उसे काबू कर लिया तो वर्तमान और आपके विचार आपकी मुठ्ठी में होते हैं। विचारो को काबू करने की असरदार विधियों पर भी इस पुस्तक में चर्चा की गई है।

सत्य की खोजः पुस्तक समीक्षाः दिवाकर विक्रम सिंह (Satya Ki Khoj, Book Review)

वर्तमान भागदौड़ भरी जिंदगी में किसे यह फुर्सत है कि वह खुद को जाने और सत्य का साक्षात्कार करे। वास्तव में 'सत्य की खोज' या उसका अन्वेषण भारतीय मनीषा की यहां के लोगों को अनुपम भेंट है जिसे हजारों वर्षों से तत्ववेत्ता हमें देते रहे हैं। गीता में तो उद्घोष है, 'नासते विद्यते भावो, ना भावो विद्यते सत:'। अर्थात सत् का अभाव नहीं है और असत् का कोई वजूद ही नहीं। जब सत् ही वास्तविकता है तो मानव समाज को असत् का ही भान क्यों होता है, यह अहम यक्ष प्रश्न है जो सभी जिज्ञासुओं के मन में उठता है। इन्हीं प्रश्नों का समाधान खोजने का एक प्रयास है, 'सत्य की खोज' में। डॉ. प्रवीण तिवारी द्वारा लिखित उक्त पुस्तक की उपादेयता और प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि इस नव भौतिकवादी समयकाल में हम इस तरह का जीवन जी रहे हैं जहां हमारी सोच यंत्रवत हो गई है। मानव जीवन के वास्तविक मूल्य जैसे बहुत पीछे छूट गए हैं। लेकिन हमारा भी विवेक कभी-कभी जगता है और जब हम अपने आप से दूर भागने की बजाय खुद से सवाल करने लगते हैं तो मन में प्रश्न उठने लगते हैं कि आखिर सत्य क्या है। तो जनाब, अब 'सत्य की खोज' नामक पुस्तक से सत्संग के लिए तैयार हो जाइए। आप जितना इस पुस्तक में डूबेंगे, व्यावहारिक धरातल पर सत्य को पाने की कोशिशें तेज होती जाएंगी। पुस्तक के प्रारंभ में ही जब लेखक इस बात का जिक्र करते हैं कि जैसे ही आप वर्तमान के प्रति सजग होते हैं, एक नवीन और बेहतर दुनिया आपके सामने होती है, इसे पढ़कर आप की जिज्ञासा और सजगता बढ़ जाती है। वास्तव में सत्य को खोजने के लिए संवेदनशील होना पड़ता है इसलिए उसके प्रयास के तहत लेखक यह बताने की कोशिश करते हैं कि सजगता एक बड़ी शर्त है। फिर सिलसिलेवार तरीके से बताया जाता है कि आखिर सत्य है क्या।
लेखक के मुताबिक सत्य कहीं दूर नहीं है, आपके भीतर ही है। आप ही सत्य का स्वरूप हैं। असत् की मोटी चादर के नीचे कहीं सत्य की रोशनी दब जाती है। हम हमेशा उसके साथ रहते हैं लेकिन असत्य का आकर्षण हमें अपनी ओर खींचता रहता है। दुनिया में किसी भी मनुष्य को अगर सत्य मिला है तो वह एक ही जैसा है। सत्य का स्वरूप मेरे लिए कुछ है और आप के लिए कुछ और तो फिर वह सत्य रहा ही कहां। एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि सत्य एक ही है और वह हम सबके लिए समान है। सत्य की खोज की आवश्यकता अनुभव करने के लिए पहले हम इन तीन प्रश्नों पर विचार करते हैं। आप ही सत्य हैं। ईश्वर भी सत्य ही है, सत्य के मार्गदर्शक, इसलिए सत्य की खोज के अभ्यास की जरूरत है। अभ्यास के लिए क्या जरूरी है, इसका भी जिक्र है अर्थात् सही अभ्यास, विश्राम का अभ्यास, विचारों को देखने का अभ्यास, सीखने का अभ्यास, आत्मबल का अभ्यास, व्यावहारिक ज्ञान का अभ्यास, एकाग्रता का अभ्यास, वर्तमान का अभ्यास, अपनेपन का अभ्यास, सतत् अभ्यास का अभ्यास। वास्तव में इनके माध्यम से सत्य घनीभूत होकर किसी भी जिज्ञासु के अंतर्मन में उतरने लगेगा। लेखक यहीं नहीं रुकता बल्कि सत्य की खोज में क्या बाधाएं हैं, इस पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि सत्य को पाने में रुकावट है- असत्य के प्रति हमारा आग्रह, अंधविश्वास, आदर्श, दिखावा, दुर्व्यसन, जलन, अपमान, सम्मान की चाह, 'क्या कहेंगे लोग' का भाव, अधिकार, विचारों का ढेर, विचलन, टालमटोल। इस पर हम कैसे विजय पा सकते है, इसका भी जिक्र पुस्तक में है। इसके लिए मन, शरीर, संघर्ष, तप, कल्पना, जिज्ञासा, संवाद, कृतज्ञता के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। इसके उपरांत भारतीय चिंतन धारा की अप्रतिम भेंट गीता के माध्यम से सत्य की खोज की जरूरत और उसकी सार्थकता बताई गई है और इसके लिए जिन तत्वदर्शियों ने साधना के माध्यम से आत्मबोध किया, उनके बारे में जिक्र है। इस तरह 'सत्य की खोज' पुस्तक के माध्यम से आत्मदर्शन के व्यावहारिक पहलुओं को छूते हुए लेखक ने एक ऐसी माला पिरो दी है, जिसका अध्ययन जीवन बदल सकती है।