स्वामी चिन्मयानन्द
(8 मई 1916 - 3 अगस्त 1993)
स्वामी चिन्मयानन्द जी का जन्म केरल में एक संभ्रांत
परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम बालकृष्ण था। उनके पिता एक न्यायधीश थे। उन्होंने
लखनऊ विश्वविद्यालय में सन 1940 में प्रवेश लिया। लखनऊ विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त
करने के बाद बालकृष्ण ने पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। उनके लेख मि. ट्रैम्प के छद्म नाम से
प्रकाशित हुए। इन लेखों मे समाज के गरीब और उपेक्षित व्यक्तियों का चित्रण था। एक
तरह से ये उस समय के सरकार और धनी पुरुषों का उपहास था। इसी समय वे स्वामी शिवानंद से प्रभावित हुए और
उनसे संन्यास की दीक्षा ले ली। वेदांत दर्शन को जन जन तक पहुंचाना स्वामी
चिन्मयानन्द ने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया
के अन्य देशों में भी उन्हें वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता रूप में स्वीकार किया
गया। आध्यात्म को तर्कसम्मत बनाकर उसे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अंग के रूप में
उन्होंने अपने शिष्यों को दिया। उनका मानना था कि दुनिया की तमाम पुरानी सभ्यताएं
इतिहास का हिस्सा बन गईं और किताबों तक सिमट कर रह गई लेकिन सनातन परंपरा के मूल
तत्व वेदांत की वजह से वैदिक धर्म को कोई नष्ट नहीं कर पाया। गीत ज्ञान-यज्ञ के जरिए
उन्होंने वेदांत के सार को अपने शिष्यों के समक्ष रखा। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाते
हुए 1953 में चिन्मय मिशन की स्थापना की गई, जो आज भी देश विदेश में
सक्रिय रूप से उनके विचारों का प्रचार कर रहा है। वैदिक परंपरा को समझाने के लिए
उन्होंने युवाओं को प्रेरित किया और इन युवाओं को तैयार कर देश भर में इसके प्रचार
के लिए लगाया। वे मानते थे कि वेदांत को न समझकर सिर्फ कर्मकांडों में फंसे रहने
की वजह से हम लगातार पिछड़ते हुए दिखाई देते हैं। अपने मिशन के तहत उन्होंने हजारों
स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य जैसे विद्यालय,
अस्पताल
आदि की भी उन्होंने शुरूआत की। उन्होंने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के 35
से अधिक
ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। स्वामी चिन्मयानन्द जी ने अपना भौतिक शरीर
3 अगस्त 1993
ई. को
अमेरिका के सेन डियागो नगर में त्याग दिया।
स्वामी चिन्मयानंद और सत्य की खोज
अपने जीवन के लक्ष्य को क्षूद्र दायरों में नहीं
बांधना चाहिए। छोटे लक्ष्य की प्राप्ति होने के बाद जीवन समाप्त हो जाता है। जैसे
शादी ब्याह में घर की महिलाएं बहुत मेहनत मशक्कत करती हैं और जब बेटी विदा हो जाती
है तो थक कर चूर हो जाती हैं और इतनी बुरी हालत में होती हैं कि खाना तक पड़ोसी
आकर खिलाते हैं। इस थकान की वजह है लक्ष्य का खत्म हो जाना, उत्साह का खत्म हो
जाना। जीवन में ऐसे लक्ष्य को स्थापित करें जिसे पाया ही न जा सके। लक्ष्य
प्राप्ति जीवन नहीं है, लक्ष्य प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना जीवन है। जीवन
के इस उच्चतम लक्ष्य को समझाते हुए स्वामी चिन्मयानंद ने तर्कसम्मत तरीके से सत्य
की खोज को समझाया। उन्होंने ने शरीर, मन और बुद्धि को संचालित करने वाली वासनाओं
से मुक्त होने पर जोर दिया। ये तब तक संभव नही है जब हम अपने भूतकाल के अनुभवों और
उनसे बनने वाली अपनी इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त नहीं हो जाते हैं। वेदांत हमें पहले
ही इस सत्य को भली भांति समझा चुके हैं। वेदांत के सार गीता में इस सत्य की
प्राप्ति के लिए इंद्रिय संयम के महत्व और उसके लिए किए जाने वाले अभ्यास को भी
भगवान कृष्ण की वाणी में समझाया गया है। सत्य दुनिया के हर व्यक्ति के लिए एक ही
है। काल, परिस्थिति की वजह से जो बाह्य विभाजन दिखते हैं उससे मानव मात्र के मूल
सत्य का कोई लेना देना नहीं है, वो हम सब के लिए एक ही है। जैसे विभिन्न देशों में
रहने वालों का अपनी परिस्थिति के आधार पर रहन सहन और खान पान अलग अलग होता है, ठीक
वैसे ही सत्य की प्राप्ति के विभिन्न तरीकों को ईजाद कर लिया गया। जिसे जो बेहतर
लगता है उसे अपनाकर उस सत्य की प्राप्ति करनी चाहिए जिसे हम कभी न समाप्त होने
वाला आनंद कहते हैं। हम जितना ही सुख प्राप्ति के लिए भागते हैं उतना ही आनंद से
दूर होते जाते हैं। इस सतत परिवर्तन शील संसार में जब सब कुछ तेजी से बदल रहा है
तो आनंद कैसे स्थायी रह सकता है? इस प्रश्न का जवाब बहुत सुंदर ढंग से स्वामीजी
ने अपने शिष्यों के समक्ष रखा। परिवर्तन शील संसार को हम अपने शरीर, मन और बुद्धि
से देखते और समझते हैं। जिस तरह कार को चलाने के लिए पैट्रोल और बल्व को चलाने के
लिए बिजली की आवश्यकता पड़ती है, ठीक वैसे ही हमारे शरीर, मन और बुद्धि को वासनाएं
चलाती हैं। जब तक वासनाएं हमें चला रही हैं हम कभी उस सत्य को नही पा पाएंगे जिसे
हम ईश्वर कहते हैं। सत्य या ईश्वर की प्राप्ति के लिए आपका स्वयं को जानना और
स्वाधीन होना आवश्यक है। वासनाओं की गुलामी से ऊपर उठते ही आप परम स्वाधीनता का
अनुभव करते हैं। ऐसे स्वाधीन जीवन को ही चैतन्य जीवन कहा जाता है। इस चैतन्यता के
साथ ही हम स्वयं को जानते हैं और शरीर, मन और बुद्धि हमारे अधीन होते हैं न कि हम
उनके अधीन। हमारे अनुभव और इच्छाएं ही वासना के मूल में हैं यदि विचारों को विराम
देकर हम इच्छाओं और वासनाओं को काबू कर लें तो हम सत्य का अनुभव कर पाएंगे। वेदांत
किसी धर्म विशेष के लिए नहीं है। जब हम जड़ मान्यताओं से ऊपर उठकर इनके मूल तत्व
को समझते हैं तो हम जान जाते हैं कि कभी न खत्म होने वाले अनंत आनंद की कुंजी इसी
में छिपी हुई है।