21 जून को "अंतर्राष्ट्रीय योग
दिवस" घोषित किया गया है। 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 193 सदस्यों द्वारा 21 जून को
"अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली।
प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से पारित किया गया, जो संयुक्त राष्ट्र
संघ में किसी दिवस प्रस्ताव के लिए सबसे कम समय
है। इससे पहले 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए अपने भाषण में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योग के महत्व पर प्रकाश डाला था और ये प्रस्ताव सभी
सदस्यों के सामने रखा था। ये वाकई बहुत खुशी की बात है कि योग के बारे में हम फिर
बात कर रहे हैं। योग का प्रचार करने वाले भी एक ही मंच पर आ रहे हैं और योग के प्रति
जागरूकता बढ़ाने की ओर भी ये एक महत्वपूर्ण कदम दिखाई देता है। मोदी जी ने सत्ता
में आने के बाद गांव शहर की स्वच्छता के लिए अभियान की शुरूआत की थी। उसे एक उत्सव
का रूप दिया था। इसके लिए बहुत प्रचार प्रसार भी किया गया और अब भी इस अभियान को
आगे बढ़ाया जा रहा है। इसी धूम धाम के साथ योग को भी उत्सव का रूप दिया गया है और
ये भी एक सराहनीय पहल कही जानी चाहिए। महत्वपूर्ण प्रश्न ये उठता है कि चाहे बाहर
की सफाई हो या योग से भीतर की सफाई हो इस मकसद को क्या सही तरीके से लोगों तक
पहुंचाने में कामयाबी मिल रही है? ये महत्वकांक्षी पहल है लेकिन क्या इसे सही
तरीके से अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है?
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स्वामी विवेकानंद |
यूं तो
भारतवर्ष का ठीक-ठीक इतिहास कोई नहीं बता सकता क्यूंकि हम पिछले कुछ 400-500 सालों
के इर्द-गिर्द ही अपने इतिहास को खंगालते रहते हैं। हमारे इतिहास को मिटाने और
दबाने की भी बहुत कोशिशें की गईं और बहुत हद तक आज के हालात देखकर ये लगता भी है
कि उन कोशिशों में आने वाले समय तक लोगों को भ्रमित रखने की कितनी ताकत थी। वेदांत
इतिहास की कहानी तो नहीं कहते लेकिन हमारी जड़ को जरूर समझाते हैं। समय-समय पर कई
महापुरूषों का अवतरण हुआ और उन्होंने भारतीय वैदिक परंपरा को जन जन तक पहुंचाने का
बीड़ा अपने कंधों पर उठाया। उन लोगों को निराशा हाथ लगेगी जो अभी तक की बातों को
पढ़ने के बाद ये सोच रहे हैं कि वर्तमान के प्रयासों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
स्वामी चिन्मयानंद से ऑस्ट्रैलिया में एक इंटरव्यू के दौरान प्रश्न पूछा गया था कि
भारत में जाति, धर्म की जो परिभाषाएं हैं उसे वैश्विक कैसे कहा जा सकता है? भारत में धर्म को लेकर तर्कसम्मत बात नहीं की जाती है? इस प्रश्न के जवाब में स्वामी जी ने बहुत ही सुंदर जवाब देते
हुए कहा था कि सिर्फ भारत में ही धर्म को लेकर तर्कसम्मत बात की जाती है बाकी
देशों में धर्म का मूल तत्व ही अभी किसी को समझ में नहीं आया है। वेदांत की बातों
को घुमा फिराकर नए ग्रंथों की रचना तो कर ली गई लेकिन उन्हें समझाने की प्रक्रिया
पर ध्यान नहीं दिया गया। जैसे अलग अलग काल परिस्थिती के लोगों के लिए भोजन, परिधान
आदि अलग अलग होते हैं वैसे ही ईश्वर प्राप्ति के मार्ग अलग अलग बना लिए जाते हैं
लेकिन वे जाते एक ही तरफ हैं और उनके सिद्धांत भी एक ही होते हैं। आप चर्च में हो,
मस्जिद में या मंदिर में सिर्फ कर्मकांड और बाहरी आवरण में बदलाव है मूल रूप से
रास्ता एक ही है। ये रास्ता वेदांत दर्शन या हमारा योग शास्त्र ही दिखाता है।
स्वामी जी ने
इस बात को भी स्वीकार किया था कि सही तरीके से वेदांत को जानने वालों की कमी की
वजह से आज बहुत सी भ्रांतियां भारत में फैल गईं हैं। वर्तमान में अंधविश्वास या
आस्था के नाम पर खिलवाड़ करने वाले लोगों ने इसी कमी का फायदा उठाया और पूर्ण रूप
से निजता के विषय आध्यात्म और ईश्वर प्राप्ति को व्यवसाय का स्वरूप दे दिया।
विवेकानंद अपने समय में इस बात को समझ गए थे और वेदांत की अद्भुत शक्ति के बावजूद
उसके पूरी दुनिया में होते उपहास से व्यथित भी थे। यही वजह रही कि बिना संसाधनों
और बिना किसी सुख सुविधा के वे यायावर की तरह पूरे देश का भ्रमण करते रहे। सचमुच
योग को विश्व के सामने रखना का उनका जुनून उन्हे शिकागो धर्म सभा में ले गया। इस
भाषण के बाद पूरी दुनिया में उनके द्वारा वेदांत दर्शन के प्रचार और मात्र 39 वर्ष
के अपने छोटे से जीवन काल में तमाम ग्रंथों के भाष्य से पूरी दुनिया परिचित ही
हैं। आज एक बार फिर उन्हीं विवेकानंद को याद किया जा रहा है, योग की शक्ति को भी
याद किया जा रहा है जितने भी संस्थान इन महान योगियों द्वारा स्थापित किए गए थे
उनमें कार्यरत कर्मचारी भी अपनी अपनी तरह से इस उत्सव का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
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स्वामी शरणानंद |
अब महत्वपूर्ण
प्रश्न ये है कि चाहे वे विवेकानंद हों, योगानंद हों, स्वामी चिन्मयानंद हों या
ऐसे कई महान योगी हुए जिन्होंने योग का सही मायने में प्रचार किया, इनकी तरह योग
को जानने वाले और मानव कल्याण के लिए समर्पित लोग हमारे बीच क्या आज भी हैं? हमें किसी भी काम को सीखने के लिए विशेषज्ञों की जरूरत पड़ती
है। क्या योग को सचमुच जानने वाले विशेषज्ञ हमारे पास हैं? इसका उत्तर अतीत के तमाम योगीजन कई मौकों पर दे चुके हैं। उनका
कहना था कि हमारा वेदांत दर्शन हमें अद्वैत सिखाता है। दूसरा कोई नहीं है, यानि
भेद का मिट जाना ही अद्वैत है। वेदांत दर्शन के सारतत्व को गीता में भगवान की वाणी
के तौर पर रखा गया और वहां भी योग को बहुत ही रोचक और सहज अंदाज में समझाया गया।
कालांतर में महान ऋषि पतंजलि ने योग को सूत्रों में ढाला और समझाने की कोशिश की।
फिर इन ग्रंथों को इस तरह से लिखा गया ताकि किसी भी काल परिस्थिती का व्यक्ति इसके
सार तत्व को समझ पाए। संकेतों और कथाओं के आधार पर लिखे जाने वाले इन ग्रंथों के
जानकार भी बनते चले गए और उन्हें समाज में विशेष सम्मान भी दिया गया। ये परंपरा
बहुत समय तक चलती रही लेकिन फिर विदेशियों की कुदृष्टि और एक के बाद एक हुए हमलों
ने एक जबरदस्त हलचल पैदा कर दी। अतीत के योगियों ने पहले भी इस बात को कह दिया था
कि इस तरह कि स्थितियां पहले भी बनती रही हैं और आगे भी बनती रहेंगी। हमारी
संस्कृति की जड़ वेदांत को नहीं छोड़ेंगे तो हम हजार बार गिरकर फिर खड़े हो
जाएंगे। गिरावट का ये दौर आया और स्वाधीनता के बाद से हम लड़खड़ाते लड़खड़ाते खड़े
हो रहे हैं। हमारे मूल तत्व वेदांत का किसी धर्म या मजहब से कोई लेना देना नहीं
बल्कि इन्हें समझ लेने वालों के नाम पर तो लोगों ने खुद ही धर्म बना डाले।
योगी का कोई
धर्म मजहब नहीं होता और न ही योग का। योग धर्म का मूल है। जब आप के भीतर वासनाओं
का उठना बंद हो जाता है, आपके विचारों का कोलाहल थम जाता है आप किसी से प्रेम या
घृणा नहीं करते हैं वरन हर परिस्थिति में आप सम रहते हैं तो ये योग की स्थिति होती
है। हमारे वेदांत दर्शन और गीता को पढ़ेंगे तो आप जान जाएंगे कि इन्ही बातों को
समझाने के लिए ये प्रयास किए गए थे। कुछ विद्वानों ने मोहवश अपने बच्चों तक ही इसे
सीमित रखने का प्रयास किया। उन्होंने इसे अपनी बपौति बनाने की कोशिश की और अपने ही
बच्चों को इसकी शिक्षा दी। ये ज्ञान को अपने पास जकड़कर रखने की राजनीति की शुरूआत
थी। जैसे ही ज्ञान में मिलावट होती है वैसे ही उसका ह्रास होने लगता है। हमारे
बेशकीमती योग के साथ भी यही हुआ। योग की प्राप्ति जिन्हें नहीं हुई थी उन्होंने भी
गलत सलत योग सिखाना शुरू कर दिया। जो खुद भ्रमित है वो कैसे किसी को राह दिखा सकता
है। हुआ भी यही धीरे धीरे योग धर्म विशेष का बन गया, फिर कुछ लोगों ने खुद को इससे
दूर करना शुरू कर दिया तो कुछ लोगों ने बिना इसे जाने समझे इसे अपने अहं से जोड़
लिया।
आज एक प्रयास
हो रहा है लेकिन यहां समत्व को प्राप्त कितने योगी आपको समाज का नेतृत्व करते
दिखते हैं? स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में हाथ पांव मोड़कर शारीरिक
जिमानास्टिक का नाम योग नहीं है। योग तो मन में उठने वाली विचारों की तरंगों के
पूरी तरह रुक जाने और एक ईश्वर में या ओंकार में स्थित होने का नाम है। जो प्रश्न
करते हैं ऐसा कैसे हो सकता है? उन्हीं लोगों के लिए वेदांत दर्शन, उपनिषद
और फिर महान पुस्तक गीता को लिखा गया, लेकिन हमने इन्हें कपड़े में लपेटकर कर
मंदिर में रख दिया और अपने धर्म की बपौति बना लिया। जो इनका विरोध कर रहे हैं वे
तो मूर्ख हैं ही जो इन्हें अपना बताकर फूले नहीं समां रहे हैं वे भी मूर्ख ही हैं।
योग हर मानव मात्र के उत्थान के लिए है, लेकिन राजनीति और व्यवसाय के हावी होने की
वजह से इसका बहुत ही नाटकीय रूप हमारे सामने आ रहा है। जब बुद्ध निकले थे तो किसी यूएन
का ठप्पा उन्हें नहीं लगाना पड़ा था और योग को उन्होंने सिर्फ देश ही नहीं विदेशों
तक पहुंचा दिया था। जिन्हें योग और बुद्ध के संबंध को समझना है उन्हें भी वेदांत
का रुख करना होगा। बुद्ध ने उस समय सही ज्ञान के नाम पर मिलावट करने वाले लोगों से
बचने के लिए कहा था। आज भी कमोबेश वैसी ही स्थिती है योग तो आवश्यक है लेकिन उसके
नाम पर यदि भोग में ही लगे हुए हैं तब तो बेड़ा पार लगना मुश्किल है।
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योगानंद परमहंस |
योग के आवश्यक
और अनावश्यक होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। असली प्रश्न है क्या योग पढ़ाने
वाले खुद योग समझ पाए हैं? यदि नहीं तो क्या खाक योग का प्रचार होगा
और क्या खाक योग की महिमा दुनिया गाएगा। राजनीति हमेशा योग के सामने बौनी रही है।
राजपाट छोड़ने वाले बुद्ध को राजनेताओं की जरूरत नहीं पड़ी बल्कि अशोक, हर्षवर्धन
और ऐसे जाने कितने राजाओँ के बुद्ध के न होने के बावजूद, उनकी शरण में जाना पड़ा।
हमें दुनिया जानती भी हमारी इसी खासियत की वजह से है। रोमन, ग्रीक और जाने ऐसी
कितनी पुरातन सभ्यताएं अब कहानियों में ही मिलती हैं लेकिन हम आज भी हैं। बेशक
टूटा फूटा समझते हैं लेकिन कुछ कुछ बातें तो जानते ही हैं। ऐसा भी नहीं है कि योग
को जानने वाले बचे ही नहीं हैं लेकिन पाश्चात्य देशों से हमने जो व्यवसाय की तकनीक
सीखी है उसमें चकाचौंध के जरिए लोगों को आसानी से भ्रमित किया जा सकता है।
हम सबकुछ नकल
करने लगे हैं। हमारा रहन सहन, सुविधाजनक जीवन, तकनीक तक तो बात ठीक है लेकिन इनके
साथ ही जब वेदांत के संस्कारों पर हमला होने लगा तो हालात खराब होने लगे। एक पीढ़ी
के खत्म होने में ज्यादा समय नहीं लगता है। छोटे से जीवन में कब हम जवान और फिर
बूढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से कुछ बातें सीखती है
तो उस दौर में उपलब्ध वस्तुओं, परिस्थितियों और तकनीक के आधार पर अपनी बुद्धि का
विकास करती है। सनातन परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी योग को जीवन के अनिवार्य अंग के
रूप में हस्तांतरित किया जाता था। आज योग के नाम पर भी भोग की ही दुकानें देखने को
मिलती है। योग को कारपोरेट रंग देकर इसे दुकान पर बिकने वाली वस्तु बना दिया गया
है। जो लोग आज योग के बहुत ही सतही रूप को अपनाते भी है तो वो भी सुंदर और सुडौल
दिखने के लिए। दरअसल योग का मतलब प्रबल इच्छाशक्ति के साथ वासनाओं और चित्त की
वृत्तियों का पूर्णतः शमन बताया गया है। ये उसी व्यक्ति के लिए संभव हो सकता है
जिसका शरीर भी स्वस्थ हो। स्वस्थ शरीर योगी के लिए एक साधन मात्र होता है जबकि आज
तो योग का मकसद ही जैसे स्वस्थ शरीर बनाना भर रह गया है। योग को समझेंगे तभी योग
को समझा पाएंगे। ये विवेकानंद के युग में भी असंभव कार्य लगता था। शंकराचार्य के समय
तो ये और भी दुष्कर काम था लेकिन बिना किसी प्रचार प्रसार और तकनीक का इस्तेमाल
किए उन्होंने इसकी हानी को खत्म करते हुए इसकी पुनर्स्थापना की। हर युग में इसी
तरह योग सिखाने के तरीकों में मिलावट हो जाती है। इसी तरह सिखाने वालों की
गुणवत्ता भी गिरती जाती है।
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स्वामी चिन्मयानंद |
फिर क्या किसी
अवतार का इंतजार करना चाहिए? स्वामी विवेकानंद और उनकी तरह कई अन्य
योगी ये बात बहुत स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि हम सब में वही असीम संभावनाएं हैं
जो बुद्ध में या शंकराचार्य में थी। ठीक इसी तर्ज पर स्वामी शरणानंद का विचार था
कि हम सभी को वो महान जीवन मिल सकता है जो कभी भी किसी भी महापुरूष को मिला है।
अपना चेहरा चमकाना या भक्तों की भीड़ जमा कर लेना योग नहीं है ये तो भोग की ही
पराकाष्ठा है जिसका अंत किसी अन्य भोग की तरह कष्ट में ही होता है। आज के दौर में
भ कुछ संतों ने सराहनीय काम किया है और बहुत हद तक वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाया है
लेकिन योग का राजनीति से कोई मेल नहीं है। इसे आम जन से जोड़ने के लिए प्रचार
प्रसार से ज्यादा उस समर्पण की जरूरत होगी जो बीते समय के तमाम योगियो ने दिखाया
है। वाकई भारत में विश्वगुरू बनने की क्षमता है क्यूंकि पाश्चात्य दर्शन में
वासनाओं के शमन और विचारों के कोलाहल पर पूर्ण विराम जैसी योग की स्थितियों पर कभी
विचार ही नहीं हुआ। पाश्चात्य संस्कृति भोग को बढ़ाने से पल्लवित पुष्पित हुई है।
हम उनकी नकल करेंगे तो उन्हें बचाने वाला तो कोई नहीं बचेगा साथ ही हम खुद को भी
बर्बाद कर लेंगे। तकनीक और विज्ञान के दौर में मानव सभ्यता के विकास के लिए उपयोगी
बातों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योग ही है। हम एटम से एनर्जी बनाते हैं या बम का
विवेक योग देता है। ये विवेक और प्रज्ञा का जागरण सिर्फ योग से संभव है। योग भारत
की जड़ों में है और इस विरोध या समर्थन की कोई आवश्यकता नहीं। ये सच है कि इसे
लेकर यदि पाखंड किया जाएगा तो इसके प्रति लोगों का सम्मान कम होगा और इसे सही
तरीके से रखा जाएगा तो किसी जद्दोजहद की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।