शनिवार, 26 मार्च 2016

डर के आगे निकलने के लिए जानें डर है क्या?

कहीं ऐसा न हो जाए? अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा? आपकी जिंदगी के सारे डर इन ही सवालों के इर्द गिर्द घूमते रहते हैं। इन दोनों ही सवालों के मूल में है अपेक्षा। अभीष्ट की सिद्धि न हुई तो क्या होगा और अनिष्ट ने आ घेरा तो क्या होगा? डर कुछ भी हो सकता है। आपके करियर से जुड़ा हुआ, रिश्तों से जुड़ा हुआ, सेहत से जुड़ा हुआ, सुरक्षा से जुड़ा हुआ और जितने लोग उतनी कहानियां और उतने ही डर के अलग अलग कारण। कारण बेशक अलग हो सकते हैं लेकिन सबके मूल में सवाल यही है कि कहीं अनिष्ट न हो जाए? अनिष्ट यानि कुछ ऐसा जिसे हम बुरा मानते हैं। एक छोटा सा अभ्यास करें। आज आपके दिल में जो भी डर हैं या यूं कहें कि जिन बातों के होने से आपको डर लगता है उन्हें एक कागज पर लिख लें। अब जरा अपनी याददाश्त पर जोर डालें और पांच साल या दस साल पुराने अपने डर को याद करने की कोशिश करें। जरा मुश्किल होता है क्यूंकि डर की आयू बहुत छोटी होती है जैसे ही समय गुजरता है वो खत्म होता है लेकिन उसकी जगह आने वाले वक्त के कुछ नए डर ले लेते हैं। हम यदि किसी बात के नहीं होने से बार बार डरते हैं और वो हो जाती है तो ये डर इतने गहरे बैठ जाता है कि ऐसी किसी परिस्थिति के बारे में सोच सोच कर ही घबराहट होने लगती है। आप जब कुछ साल पहले के डर पर गौर करते हैं तो आप पाते हैं वो आज आपको नहीं डराता, हां ये हो सकता है कि उसके दोबारा होने का डर आपके मन में पहले से भी ज्यादा गहरे घर कर गया हो।

इस बात को एक उदाहरण के जरिए समझने की कोशिश करते हैं। अब जरा याद करिए उस समय को जब आप स्कूल या कॉलेज में थे। यदि आप स्कूल कॉलेज में हैं तो अपनी पुरानी परीक्षाओं के दौर को याद कीजिए। हर बार परीक्षा का डर मन में आता था और ईश्वर से प्रार्थना शुरू हो जाती थी बस इस बार मदद कर दो फिर सब ठीक हो जाएगा। आगे क्या होता है? कक्षाएं और परिक्षाएं बदलती रहती हैं लेकिन बस इस बार बेड़ा पार लगा दो कि प्रार्थना चलती रहती है। जो प्रार्थना को नहीं भी मानते वो अपने आत्मबल से भी यही गुहार लगाते हैं इस बार ताकत दो। यानि भय परिस्थितियों में छिपा होता है बल्कि और स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो अनजान परिस्थितियों में छिपा होता है। अपने जीवन के सफर में आप पाएंगे कि आपके पीछे जीवन की अलग अलग कहानियां हैं। कुछ लोग काफी कुछ देख चुके हैं तो कुछ को काफी कुछ देखना बाकी है। इसके बावजूद जीवन की अलग अलग परिस्थितियों, अलग अलग विचारों और अलग अलग अनुभवो से आपकी अपेक्षाओं और परीक्षाओं के स्वरूप भी अलग अलग हैं। जिस तरह गणित में एक फॉर्मूला अलग अलग अंकों के साथ हर सवाल के सही नतीजे देता है। ठीक उसी तरह जीवन के भी ऐसे फॉर्मूले हैं जिन्हें अलग अलग परिस्थितियों में भी आजमा कर सकारात्मक नतीजे लाए जा सकते हैं।
सकारात्मक नतीजों की चाहत भी कई बार भय का ही कारण बनती है। यदि नतीजे सकारात्मक नहीं आए तो? यही है अभीष्ट के न होने का डर। लेकिन चाहे गणित हो या जीवन फॉर्मूला हमेशा काम करेगा बशर्ते आप उसका सही सही उपयोग करें। डर को जानने के लिए खुद को देखना बहुत जरूरी है। अपने डर में हम इतने खो जाते हैं कि वो हमें किसी मदमस्त घोड़े की तरह हमें अपने पीछे बांधकर घसीटता हुआ ले जाता है। हम छीलते जाते हैं, चोट खाते जाते हैं लेकिन खुद को उससे नहीं छुड़ा पाते। डर का बढ़ते जाना इस घोड़े की ताकत का बढ़ते चले जाना है। जितना डरेंगे उतनी ही इसकी रफ्तार बढ़ेगी और उतनी ही आपकी तकलीफ। जब अपने डर को देखना शुरू करते हैं तो आप पाते हैं कि ये आपके अपने विचारों और अपने विषय में आपकी मान्यताओं से ही पैदा हुआ है। कई मासूम बच्चे परीक्षाओं में फेल होने पर इतने भयभीत होते हैं कि मौत को गले लगा लेते हैं। कई लोग अपने रिश्तों की परीक्षा में फेल होने पर भी इस तरह के कदम उठाते हैं। कोई भी मामला उठाकर देख लीजिए स्वस्थ लोगों को ऐसे भयग्रस्त लोग बीमार ही दिखाई पड़ते हैं। दरअसल ये भयंकर मनोरोग है भी। छोटे छोटे डर कब विकराल रूप ले लेते हैं हमें समझ ही नहीं आता। हमें ये भय मृत्यु के समान लगता है लेकिन इसके बारे में जितना सोचते हैं ये उतना ही बढ़ता जाता है। भय को देखना और उसको जानना पहला कदम है। जब आप पुराने भय के आज कोई अस्तित्व नहीं होने का अहसास करते हैं तो आपको कुछ कुछ इस बात का भी अहसास करना चाहिए कि वर्तमान में जो बातें आपको परेशान कर रही हैं या डरा रही है उनका भी कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। जब आप समय के साथ परिस्थिति परिवर्तन के फॉर्मूले को समझते हैं तो जीवन के उतार चढ़ाव को सहजता से देखना शुरू करते हैं। दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो सिर्फ सुखद परिस्थितियां ही देखता है और ऐसा भी कोई नहीं जो सिर्फ दुखद परिस्थितियां देखता है।

भय का सबसे बड़ा भोजन उसका सतत चिंतन है। आपको अपने विचारों को विराम देने का अभ्यास आना चाहिए। आपके मस्तिष्क में उठने वाले विचार ही आपका मन बना रहे हैं और फिर यही मन आपके व्यक्तित्व को बना रहा है। बीज रूप से विचार ही भय को लाते हैं और विचार ही इस भय के अंत का एक मात्र उपाय हैं। आप नकारात्मक विचारों के सतत चिंतन से भयग्रस्त होते हैं तो इनके विपरीत विचारों या सकारात्मक चिंतन से आप इस भय को कमजोर कर सकते हैं। परिस्थितियां एक जैसी नहीं रहती है। यदि परिस्थितियां बहुत सुंदर नहीं है तो धैर्य रखिए उनमें सकारात्मक परिवर्तन आएगा। यदि परिस्थितिया बहुत सुंदर हैं तो उन्हें जकड़ रखने का असफल प्रयास न करिए उनके खोने का डर भी उतना ही भयानक है जितना बुरी परिस्थितियों मे जीने का। स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में आप स्वयं को मिली परिस्थितियों का एक समान सकारात्मक उपयोग कर सकते हैं। यदि आपको कठिन या दुखद दिखने वाली परिस्थितियां मिली हैं तो त्याग का बल अपने भीतर पैदा कीजिए। यदि आपको सुखद परिस्थितियां मिली हैं तो अपने भीतर सेवा का बल पैदा कीजिए। त्याग का अर्थ है जो नहीं है का चिंतन करने के बजाए जो है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव पैदा करना। यदि किसी के पास तमाम दौलत हो लेकिन सेहत न हो तो उसकी दौलत किस काम की, लेकिन जिसके पास दौलत नहीं और सेहत है वो क्या इस सेहत की कद्र कर पाता है? वो क्या इसका सदुपयोग कर पाता है? यदि करता है तो वो कभी भयग्रस्त नहीं रहेगा और यदि नहीं करता है तो वो अपना समय, ऊर्जा और ईश्वर से मिले गुणों का दुरपयोग ही कर रहा है। भय कुछ और नहीं स्वयं को मिली परिस्थितियों का दुरपयोग और व्यर्थ चिंतन है। परिस्थितियां कभी भी स्थायी नहीं रहती ये एक मंत्र परिस्थितियों की अनुपयोगिता को सिद्ध करने के लिए काफी है। परिस्थिति चिंतन से बाहर निकलिए और देखिए कैसे भय छूमंतर हो जाता है।

बुधवार, 16 मार्च 2016

बुरा काम आलोचना का शिकार होता है, तो अच्छा काम ईर्ष्या का !


हम बुरा काम करेंगे तो आलोचना का शिकार होंगे और अच्छा काम करेंगे तो ईर्ष्या का शिकार होंगे। कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी एक कविता का जिक्र करते हुए ये बात कही थी। ये वाकई ऐसा सच है जिसे हम आए दिन अपने जीवन में देखते रहते हैं। हां समझ के फेर की वजह से हम कई बार सकारात्मक आलोचना को भी ईर्ष्या की श्रेणी में रख देते हैं। हांलाकि सकारात्मक आलोचना के बजाए वर्तमान समय में ईर्ष्यालू प्रवृत्ति बहुत सामान्य तौर पर दिखाई देने लगी है। ईर्ष्या के मूल और उसके दुष्प्रभावों को समझना बहुत जरूरी है क्यूंकि ये सिर्फ एक आदत नहीं बल्कि एक मनोरोग की तरह है। हम किसी से ईर्ष्या क्यूं करते हैंदरअसल इस एक प्रश्न में ही हमारे व्यवसायिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन का ताना बाना बुना रहता है। हम किसी प्रयास में असफल होते हैं तो फौरन ही बहुत से लोग की निंदा और आलोचना करने के लिए खड़े होते हैं। अपने जीवन में मिलने वाली असफलताओं के डर से भागने वाले तमाम लोग दूसरों को असफल होते देख एक सुखानुभूति में चले जाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब लोग किसी अन्य की सफलता से भी भय खाने लगते हैं। वो जो खुद नहीं कर पाए यदि कोई और करता दिखता है तो उन्हें भयानक कष्ट का अनुभव होता है। कई लोग अपनी सफलता से ज्यादा दूसरों की असफलता की प्रार्थना में व्यस्त हो जाते हैं। इन बातों को यहां लिखने की और समझने की जरूरत इसीलिए है क्यूंकि दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, कैसे सोच रहे हैं, क्या करते हैं से ज्यादा जरूरी है खुद पर नजर रखना। जब दूसरों के मन में पैदा होने वाली ईर्ष्या की बात होती है तो हो सकता है आप समर्थन करने में एक पल न लगाएं, लेकिन जब आपके भीतर ईर्ष्या के बीज की बात होती है तो आप इसे जाहिर करना तो बहुत दूर की बात है स्वीकार तक नहीं करेंगे। ये बताने या स्वीकार करने का विषय है भी नहीं। हां अगर आप स्वयं इस बात को लेकर सतर्क हो जाते हैं तो अपने जीवन में कई सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।

अच्छा काम आपको ईर्ष्या का शिकार बनाता है लेकिन ऐसा तभी होता है जब आपने अपने इर्द गिर्द ईर्ष्यालू लोगों का जमावड़ा लगा लिया हो। ईर्ष्या नजदीक के लोग ही करते हैं आप कभी भी अच्छे कामों को लेकर अनजान लोगों की ईर्ष्या का शिकार नहीं होते हैं। हां कई बार आपकी शोहरत, संपन्नता जैसी विभूतियां ऐसी चीजों को ना पाने वालों के भीतर ईर्ष्या पैदा करती हैं। ये उदाहरण इसीलिए रखना जरूरी है क्यूंकि ईर्ष्या के मूल में अन्य लोगों की तरह किसी वस्तु, या परिस्थिति को  पाने की अक्षमता होती है। आपके भीतर यदि ईर्ष्या का बीज है तो वो आपको अक्षम ही बनाए रखेगा। एक सामान्य मनोविज्ञान है कि आप अपने सामर्थ्य से थोड़ा आगे ही सोचते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर ईर्ष्या के बीज अपने ही घर में या दफ्तर में देखने को मिलते हैं। औरों की ईर्ष्या का इलाज आपके पास नहीं है क्यूंकि ये उनकी अपनी मनःस्तिथि या परेशानी है। हां आप अपने भीतर से इस ईर्ष्या को निकालकर फेंक सकते हैं। इसे निकालकर फेंकने की जरूरत इसीलिए है क्यूंकि ये एक ऐसा अवगुण है जो हमारी क्षमता और सोचने के तरीके को दूषित करता है। औरों की ईर्ष्या से प्रभावित होकर यदि आप उस पर प्रतिक्रिया देते हैं तो आप उन्हें और ईर्ष्या का ईंधन दे रहे हैं। यही बात आपकी ईर्ष्या पर भी लागू होती है। किसी और की आपके लिए की गई ईर्ष्या के प्रत्यूत्तर में आपके द्वारा भी उसे यदि ईर्ष्या ही दी जाती है तो आप भी उसी रोग के शिकार हो जाते हैं। ये शुरू एक आदत से होती है लेकिन खत्म एक बीमारी पर होती है। बीमारी भी ऐसी की आप अपने जीवन को छोड़कर औरों के जीवन में ही तांकझांक करते रहते हैं। किसी और को आगे बढ़ते देख आपको घबराहट का अनुभव होने लगता है। लगभग हर नाकाम व्यक्ति की यही अवस्था देखने को मिलेगी। ये उसकी नाकामी को तो दिखाता ही साथ ही भविष्य में उसकी सफल होने की संभावनाओं के भी जड़मूल नष्ट होने की निशानी है।

ईर्ष्यालू प्रवृत्ति एक गलत अभ्यास से पनपनती है और यदि सही अभ्यास किया जाए तो इसे खत्म भी किया जा सकता है। अब प्रश्न उठता है कि आखिर वो सही तरीका क्या हैयदि आप ईर्ष्या का शिकार हो रहे हैं तो समझ लीजिए आप अच्छा काम कर रहे हैं। क्यूंकि इसके अलावा ईर्ष्या के मूल में और कुछ हो ही नहीं सकता। अब बस अपने काम को जारी रखते हुए आपको अन्य लोगों की ईर्ष्या को नजरअंदाज करना होगा। अपने जीवन को उनके साथ सामान्य रखना होगा। क्यूंकि सामान्यतः हम ईर्ष्या करने वालों से खुद भी ईर्ष्या करने लगते हैं। इसी तरह यदि किसी के भीतर ईर्ष्या पैदा करने के लिए आप किसी काम को कर रहे हैं तो आप अपने भीतर भी रोग ही उत्पन्न कर रहे हैं। यदि आप स्वभाविक रूप से अपने काम में आगे बढ़ते हुए इस ईर्ष्या को अपने इर्द गिर्द पाते हैं तो ईर्ष्यालू लोगों के लिए भी आपको करुणा का भाव रखना होगा। यदि आप उनसे बात करना बंद करते हैं या ईर्ष्यावश उठाए उनके कदमों पर आप प्रतिक्रिया देना शुरू करते हैं तो आप इस प्रवृत्ति को और हवा दे देते हैं। दूसरी स्थिति ये है कि आप स्वयं ईर्ष्यालू प्रवृत्ति के हैं। यदि आपके भीतर ईर्ष्या घर कर रही है तब आपको अपनी क्षमताओं के विषय में चिंतन करना चाहिए। यदि आप किसी सामान्य सामर्थ्य वाले या आपके समकक्ष सामार्थ्य वाले से ईर्ष्या कर रहे हैं तो तय है कि आप में सफलता की भूख इतनी घर कर चुकी है कि किसी अन्य को मिलने वाली एक छोटी सी सफलता भी आपको चुभने लगती है। ये भी भयंकर मनोरोग ही है। इससे बचना इसीलिए जरूरी है क्यूंकि ईर्ष्यालू प्रवृत्ति आपकी क्षमता को लगातार कम करती है। आपके विचारों की गति ही आपके जीवन में मिलने वाली सफलता या असफलता को तय करती है। 

यदि आप ईर्ष्यालू मन के साथ विचार कर रहे हैं तो आप कभी स्वस्थ चिंतन नहीं कर पाएंगे। आप को गंभीरता से इस ईर्ष्या के मूल पर विचार करना होगा। आप अपने भाई से, दोस्त से या दफ्तर के किसी सहयोगी से ईर्ष्या करते हैं लेकिन किसी बड़े फिल्म स्टार या किसी अन्य बहुत बड़े व्यक्ति से शायद नहीं करेंगे। इसकी वजह ये है कि आप अपने आपको एक सीमित दायरे में बांध लेते हैं। उसी दायरे में खुद को उत्कृष्ट बनाने की एक अंधी दौड़ शुरू हो जाती है। हमेशा याद रखिए उत्कृष्टता किसी दायरे के लिए नहीं होती है। यदि आप स्वयं के व्यक्तित्व को सचमुच बड़ा और प्रभावशाली बनाना चाहते हैं तो आपको क्षूद्र दायरों से निकलकर स्वयं के उत्थान और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक गुणों पर सतत चिंतन करना चाहिए। अभ्यास और समय का बेजोड़ मेल आपको जीवन में आदर्श का पात्र बनाता है न कि ईर्ष्या का। जो आज आदर्श हैं वो भी कभी ईर्ष्या के शिकार हुए होंगे, लेकिन सतत अपने लक्ष्य के प्रति सतर्कता, अन्य लोगों से ईर्ष्या न करना और स्वयं अन्य लोगों के द्वारा की जा रही ईर्ष्या के प्रति उदासीन रहना उनके आदर्श बनने का मूल मंत्र बना।

रविवार, 13 मार्च 2016

अंधविश्वास और आस्था के बीच की बारीक लकीर


बाबाओं की इस समाज में क्या जरूरत है? बाबा हैं और उनके पीछे बहुत बड़ी भीड़ भी है। नेताओं अभिनेताओं से कहीं ज्यादा बड़ी भीड़। बाबा कुछ भी करें लोग उनके पीछे होते हैं। जब वो व्यवसाय में उतरते हैं तो बड़ी बड़ी कंपनियों के पसीने छूट जाते हैं। जब वो राजनीति के अखाड़े में आते हैं तो उनके एक इशारे पर समीकरण बदल जाते हैं। नेता, व्यवसायी या शोहरत और ताकत वाले लोग भी बाबाओं की शरण में दिखाई पड़ते हैं। ये तो साफ है कि बाबाओं में कुछ तो बात होती है जो लोग उनसे बंधते चले जाते हैं। पुराने संतों की बात करें तो उनका प्रभाव इतना जबरदस्त होता है कि उनके नाम पर धर्म संप्रदाय भी बन जाते हैं। आज समाज के ताने बाने को देखें तो विज्ञान ने सुविधा के साधन तो दिए हैं लेकिन सामाजिक ताना बाना आध्यात्मिक लोगों का ही दिया हुआ है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि सभी बाबाओं या संतों ने समाज को सही दिशा नहीं दिखाई है। जहां कई सच्चे संत हुए तो कई ऐसे संत भी हुए जिन्होंने इस समाज को अंधविश्वास भी दिया है। बाबाओं की तो समाज को हमेशा से जरूरत रही है और आगे भी रहेगी लेकिन किसके पीछे चलना और किससे बचना की समझ तो समाज को खुद ही विकसित करनी होगी। अब बाबाओं के पीछे चलने की वजहों पर विचार करते हैं। पहली वजह तो ये कि वो कोई ऐसी दैवीय शक्तियां विकसित कर लेते हैं जो आम लोगों में नहीं होती। ये एक ऐसी मान्यता है जो सामान्य बुद्धि के लगभग सभी लोगों में घर कर जाती है। दूसरी वजह है अपने निजी जीवन का विकास।
स्वामी गंगाराम वर्तमान संत परंपरा में एक ऐसा नाम हैं जो अंधविश्वासों
के खिलाफ भक्तों और शिष्यों को जागरूक कर रहे हैं। निर्विचारता की
अवस्था से निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करने की सहज विधि नाद ब्रह्म के
वो विरले जानकार हैं। इसका जीवन में क्या महत्व है और कैसे मानव
जीवन का अंतिम लक्ष्य चिर शांति और प्रेम की प्राप्ति है पर वो बहुत
ही सहजता से शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं।
पहली वजह में कुछ सच्चाई है तो बहुत कुछ झूठी धारणाएं भी हैं। सच्चाई ये है कि सच्चे संत वीत राग या वैराग्य को प्राप्त होते हैं। वे जीवन से भेद और इच्छाओं का अंत कर देते हैं। अष्टांग योग से एक ऐसे चरित्र और जीवन का निर्माण करते हैं जो समाज के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है। वे मनुष्य जीवन के उत्थान और पतन को साक्षी भाव से देखते हैं और इसीलिए उनकी दृष्टि अपनी इच्छाओं और अपेक्षाओं मे फंसे सामान्य मनुष्य से ज्यादा तीव्र और प्रभावशाली होती है। जो राग द्वेष से मुक्त है वो भय से मुक्त है। अपना कल्याण चाहने वाला हर मनुष्य भय के समूल नाश के लिए सच्चे संतों की शरण में जाता है। संत का जीवन एक ऐसा आदर्श है जो उसमें ये प्रेरणा पैदा करता है कि हर मनुष्य इसी तरह के शांत और उत्तम जीवन को प्राप्त कर सकता है। इस तरह के जीवन का अर्थ ये नहीं कि सभी आश्रम बनाकर भगवा धारण कर लें बल्कि कोई भी कहीं भी जो कुछ भी कर रहा है उसे वहीं करते हुए सत्य के गुणों का विकास अपने भीतर करने का साहस मिलता है।

राजपाठ छोड़ने वाले बुद्ध को जो जीवन मिला वही जीवन ताउम्र जुलाहे का काम करने वाले कबीर को मिला। वही शांत जीवन क्रूर हत्यारे अंगुलीमाल को बुद्ध की शरण में आने से मिला। आज भी कई ऐसे संत है जो सचमुच अपने जीवन से ऐसा आदर्श प्रस्तुत करते हैं। नाद ब्रह्म के परम ज्ञानी स्वामी गंगाराम भी ऐसे विरले संत हैं जिनका अपना जीवन प्रेरणा से भरा है। ऐसे ही आज के दौर के कई सच्चे संत आपको मिल जाएंगे। हमें तय करना है कि हम किन गुणों का विकास करने के लिए, कैसा जीवन पाने के लिए इन संतों के पास जा रहे हैं। यदि हम कभी न खत्म होने वाले सुख और शांति की तलाश में जा रहे हैं, यदि हम सत चित आनंद की तलाश में जा रहे हैं तो वो हमें सच्चे संतों की शरण में हमेशा मिलेगा वो चाहे सशरीर हमारे साथ हो या न हो। अब बात करते हैं बाबाओं के पीछे जाने वालों की बड़ी तादाद की और ये ज्यादा गंभीर मसला है क्यूंकि यही अंधविश्वास और आस्था के बीच की बारीक लकीर पार हो जाती है।

ज्यादातर लोग अपने अभीष्ट कामों की सिद्धि के लिए बाबाओं के चक्कर लगाते हैं। इन लोगों के लालच का फायदा उठाते हुए कई लोगों इनकी तुच्छ कामना पूर्ति के लिए कई स्वांग रच लेते हैं। ये स्वांग धीरे धीरे लोगों में अंधविश्वास के रूप में घर कर जाते हैं। टोने टोटकों का एक सिलसिला शुरू हो जाता है। कई लोगों को अजीबो गरीब लगने वाली सलाहें भी अपने भाग्य परिवर्तन का तरीका महसूस होने लगती हैं। उनमें से कुछ के आजमाने के बाद यदि कोई सकारात्मक परिणाम निकलता है तो बाकी आंखें बंद कर उसके पीछ चलने लगते हैं। ये नियम है कि उत्थान पतन चलता रहेगा। अच्छे बुरे परिणाम दुनियावी बातों में आते रहते हैं। किसी के जीवन में सतत सफलता या सतत असफलता नहीं होती। आंशिक सुख और आंशिक दुख बना रहता है। हमारे अपने प्रयासों और विचार शक्ति से सुख या दुख का जीवन पर असर पड़ता है। सकारात्मक विचार वाले अपेक्षाकृत अधिक सुखी और समृद्ध होते हैं जबकी कमजोर इच्छाशक्ति और नकारात्मक विचार वाले अपेक्षाकृत अधिक दुखी दिखाई पड़ते हैं। कई बाबाओं में विश्वास करने से लोगों के भीतर खुद की सकारात्मक शक्तियों का विकास होता है। कई लोग अंगुठी, माला, रूमाल और जाने क्या क्या रखकर सकारात्मक ऊर्जा महसूस करते हैं। ये ऊर्जा काम भी करती है लेकिन इसका इन टोटकों या चीजों से कोई लेना देना नहीं होता। ये ऊर्जा हमेशा से भीतर ही होती है। आप सकारात्मक चिंतन के लिए यदि बाह्य वस्तुओं और लोगों पर निर्भर हो जाएंगे तो आप अंधविश्वासी बन जाएंगे। दरअसल यही अंधविश्वास की बारीक लकीर है जो आपके भीतर की सकारात्मक ऊर्जा को बाहर वस्तुओं या बाबाओं में दिखने लगती है। अपने जीवन के उद्देश्य को सामने रखे और फिर बाबाओं की जरूरत पर खुद विचार करें। यदि आप अपनी क्षुद्र इच्छाओं की पूर्ति के लिए उनके चक्कर लगा रहे हैं तो सतर्क हो जाईए। यदि कोई बाबा आपकी इच्छाओं की पूर्ति का दावा कर रहा है तो भी सतर्क रहने की जरूरत है। 

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

शरीर के विश्राम से ज्यादा जरूरी है मन का विश्राम


दिन भर की भागदौड़ के बाद जब हम थक कर चूर हो जाते हैं तो बस यही मन करता है कि अब बिस्तर पर गिरते ही नींद आ जाए। होता भी यही है और जब नींद खुलती है तो लगता है थकान अब भी बाकी है। फिर वहीं रोजमर्रा की जिंदगी और फिर वहीं थकान। फिर आता है छुट्टी का दिन, लेकिन ये क्या, छुट्टी के दिन तो हमारे इतने सारे काम पहले से ही पेंडिंग पड़े हैं उन्हें कब निपटाएंगे? और फिर इन कामों को करें या ना करें लेकिन सोच सोच कर ही थकान इतनी ज्यादा हो जाती है कि चिढ़ होने लगती है। लगभग सभी की कहानी मिलती जुलती होती है लेकिन कहानियों में एक फर्क भी देखने को मिलता है। कुछ लोग अपने जीवन में नित नई ऊर्जा भरते जाते हैं, आगे बढ़ते जाते हैं, तो कुछ लोग लगातार थकते जाते हैं और एक दिन इतना थक जाते हैं कि उनके जीवन से आनंद का रस ही खत्म हो जाता है। उन्हें किसी काम में मजा ही नहीं आता। यहां तक की उन्हें कोई नई बात कह भर दी जाए तो वो आगबबूला हो जाते हैं। इसकी वजह है शरीर की थकान से भी खतरनाक मन की थकान। चौंकिए मत, जी हां ये सच है कि आपका मन भी थक जाता है और मन की ये थकान इतनी खतरनाक है कि उसके बाद सिवाय अवसाद के और कुछ आपके जीवन में नहीं रह जाता। ये दुनिया वहीं है, ये लोग वहीं हैं, ये कुदरत वही है, लेकिन इसके बावजूद आपके भीतर बहुत कुछ बदल रहा है। ये बदलाव यदि सकारात्मक है तो आप जीवन के उच्चतम स्तर को पाएंगे और इसके उलट ये बदलाव यदि नकारात्मक है तो एक दिन आप भी मन की थकान के उस आखिरी स्तर पर पहुंच जाएंगे जिसे अवसाद कहते हैं। जैसे कभी न खत्म होने वाले आनंद का जिक्र मिलता है वैसे ही कभी न खत्म होने वाले अवसाद, नीरसता और चिढ़ का भी अस्तित्व होता है।
स्वामी विवेकानंद चित्त की वृत्तियों को एक तार साधने के लिए दोनों आंखों के मध्य
त्रिनेत्र के स्थान पर ज्योति प्रकाश को देखा करते थे। आप त्राटक की कई विधियों से
शुरुआत में ध्यान की इस अवस्था का अभ्यास कर सकते हैं और बाद में ये आपके लिए
स्वतःसिद्ध प्रक्रिया बन सकती है। अपने इर्द गिर्द की आवाजों के प्रति सतर्कता और फिर
प्रकृति के संगीत, भीतर के संगीत यानि अनहद नाद या ब्रह्मनाद को सुनन भी
ध्यान की उत्तम विधा है। इसके विरले ज्ञानी स्वामी गंगाराम जी से मुझे भी नाद को
सुनने और समझने की दीक्षा मिली है।
आपको तय करना है कि आप किस रास्ते चल रहे हैं और सच पूछिए तो इसे आप ही जान सकते हैं। दरअसल आप क्या कर रहे हैं से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आप किसी काम को किस मनोभाव के साथ कर रहे हैं। यदि आप ईर्ष्या और थकान से भरकर किसी काम को करते हैं तो खुद को और थकाते हैं। शरीर को आराम देने के लिए हम विश्राम जानते हैं। हम आखें बंद कर या कहीं बैठकर या लेटकर शरीर की थकान दूर करने की कोशिश करते हैं। लेकिन जीवन में नीरसता के लिए शारीरिक थकान बहुत कम जिम्मेदार होती है जबकी मन की थकान आपकी निराशा के मूल में होती है। घर में जब कोई शादी समारोह या कोई बड़ा काम होता है तो सभी लोगों में एक ऊर्जा आ जाती है। खास तौर पर घर की महिलाएं दिन रात जुटी रहती हैं। लेकिन जैसे ही वो कार्यक्रम खत्म होता है वो पस्त हो जाते हैं। उनमें से कुछ बीमार हो जाते हैं। कुछ दो तीन दिन तक सोते रहने की बातें करते हैं। ये आपके भी जीवन का अनुभव रहा होगा कि जब आप किसी काम को पूरे रस के साथ करते हैं तो समय और थकान का आभास ही नहीं रहता और जैसे ही उस काम की पूर्णता होती है आप बुरी तरह से थकान महसूस करते हैं।
जीवन में यही रस आपकी सकारात्मक ऊर्जा के मूल में है। क्यूंकि हम जीवन के अन्य कामों में अपने मन की थकान से निराशा का अनुभव करते हैं इसीलिए थकान और अरुचि जीवन में घर करती जाती है। आप किसी काम को रोज रोज करते हैं या किसी भी बात का दोहराव आपको कोल्हू के बैल की भांति जीवन जीने का भी अनुभव देता है। दरअसल हम शारीरिक श्रम से जिस तरह शारीरिक थकान का अनुभव करते हैं ठीक वैसे ही मन और मस्तिष्क के श्रम से हम मानसिक थकान का अनुभव करते हैं। शारीरिक रूप से जिन कामों को बार बार करते हैं उनसे स्वभाविक रूप से अरुचि होने लगती है। आप रोज रोज एक तरह की सब्जी नहीं खा सकते, आप रोज रोज एक जैसा काम करने से होने वाली अरुचि से भी वाकिफ हैं, ये दोहराव हमारे जीवन में नीरसता लाता है। अब जरा सोचिए एक जैसे विचारों को 24 घंटे सोचते रहने से हमारे मन पर इस दोहराव के क्या नतीजे आते होंगे? जी हां मन की थकान और नीरसता की बड़ी वजह एक जैसे विचारों के मकड़जाल में फंस कर रह जाना ही है। शरीर के विश्राम की तरह अव्वल तो आपको मन के विश्राम की भी व्यवस्था करनी चाहिए। मन कुछ और नहीं आपके विचारों का पुलिंदा है। इन विचारों को कुछ पलों के लिए विराम देकर आप चाहे तो अपने मन को शांत कर सकते हैं। अपने विचारों को देखना स्वयं के स्वरूप पर ध्यान देना इसकी प्रारंभिक विधियां हो सकती हैं। फिर ध्यान की ऐसी कई विधियां हैं जो आपको चित्त की वृत्तियों या आपके विचारों को तेल धारावत चलना सिखाती हैं। आप यदि मन को विश्राम देना सीख लेते हैं तो अपने जीवन से हमेशा हमेशा के नीरसता का नाश कर सकते हैं। नीरसता बाहर नहीं भीतर हैं और इसी तरह रस भी बाहर नहीं भीतर ही है। जब तक रस की तलाश बाहर होती रहेगी, भीतर की नीरसता ताकतवर बनी रहेगी। जब तक नीरसता है मन थका हुआ रहेगा और मन की ये थकान आपकी हर थकान के मूल में है।

कल्पना जगत में रहकर अपने वर्तमान से हटकर किसी अप्राप्त परिस्थिति का चिंतन आपको विचारों के इस दुहराव तक ले जाता है। आपने अपने भीतर अपनी एक दुनिया बसाई है, एक ऐसा कल्पनाजगत जिसमें आपने तमाम किरदार बना रखे हैं। कोई अच्छा है कोई बुरा है, कोई हितैषी है कोई ईर्ष्यालू है तो किसी से आप ईर्ष्या करते हैं। कोई आप से कुछ चाहता है तो किसी से आप कुछ चाहते हैं। आपकी इस फिल्म के जाने कितने किरदार हैं। इसी तरह आपने अच्छी बुरी परिस्थितियों का भी खाका बना रखा है। मन की बात होगी तो शुभ परस्थितियां और मन की नहीं हुई तो अशुभ। फिर अशुभ के भय की कल्पनाएं तो शुभ की प्राप्ति की कल्पनाएँ शुरू हो जाती हैं। ये ऐसी प्रक्रिया है जो सतत आपके भीतर चल रही है। जिसने इस प्रक्रिया को देखना सीख लिया और अगले चरण में इसके प्रति सतर्क होना सीख लिया, उसने अपने मन को काबू करने की शुरूआत कर दी है। फिर वर्तमान के प्रति जागृति, विचारों के प्रति सतर्कता और कुछ समय किया ध्यान का सतत अभ्यास स्वतः ही आपका आगे का मार्ग प्रशस्त करता है।