मंदिरों में भक्तों की मौत का ये कोई पहला मामला
नहीं है। भक्ति भाव से भरे इस देश में लोगों की मंदिरों में अटूट आस्था होती है।
अपने भगवान के दर्शनों के लिए देश भर के कोने कोने से भक्त गण इन मंदिरों में जुटते
हैं। खास तौर पर त्यौहार के समय दर्शनों का विशेष महत्व कहा जाता है और यही वजह है
कि ऐसे मौकों पर भक्तों जबरदस्त भीड़ उमड़ती है। बेकाबू भीड़ की वजह से कई लोगों
की मौत होने की घटनाएं भी सामने आई हैं लेकिन इतिहास की इन घटनाओं से हमने कोई सबक
नहीं लिया और एक बार फिर एक मंदिर में बड़ा हादसा सामने आया है। आप किसी भी हादसे
पर नजर डालते हैं तो मंदिरों में होने वाली बेकाबू भीड़ ही सैंकड़ों लोगों की मौत
का कारण बनी है। दुनिया भर में कहा जाता है कि भगवान के लिए आस्था
देखनी हो तो भारत आईए। मंदिरों में विशेष आयोजनों, मेलों और त्यौहारों की पुरानी
परंपरा है। बीतते वक्त के साथ कई मंदिरों की विशेष मान्यता हो गई और लोगों ने
इन्हीं मंदिरों को साक्षात ईश्वर के निवास स्थान के रूप में स्वीकार किया। देश के
कोने कोने से अपनी मन्नतों को लिए हजारों लाखों श्रृद्धालू इन मंदिरों में आते हैं
और स्वयं के जीवन को धन्य मानते हैं। केरल के मंदिर में हुई घटना से आस्था पर कोई
फर्क नहीं पड़ता लेकिन मंदिरों और प्रशासन की बदइंतजामी इससे एक बार फिर उजागर
होती है। हांलाकि इस बात को समझने की जरूरत है कि सिर्फ प्रशासन ही इसके लिए
जिम्मेदार नहीं है। उत्सव के माहौल में लोगों का एक विशेष समय पर दर्शन करने की
मानसिकता भी मंदिरों की व्यवस्था को तार तार कर देती है।
हमारे देश में मंदिरों के प्रति आस्था का अंदाजा
इस बात से लगाया जा सकता है कि नवरात्र जैसे पावन मौकों पर कई मंदिरों में आनी
वाली भीड़ की तादद किसी छोटे मोटे देश की जनसंख्या से ज्यादा होती है। जिस वक्त
2005 में सतारा के मंधार मंदिर में भगदड़ मची थी वहां एक ही समय पर 3 लाख लोगों के
होने का दावा किया गया था। ये किसी और देश के लिए आश्चर्य का विषय हो सकता है
लेकिन हमारे लिए ये सामान्य बात है। नवरात्र में माता के तमाम शक्ति पीठों और
प्रसिद्ध मंदिरों में इसी तरह का माहौल होता है। ये भी सच है कि उत्सव का अपना
महत्व है ऐसे में लोगों के मन में श्रद्धा का सैलाब ऐसे अवसरों पर अधिक होता है।
हांलाकि हमें उत्सव और भक्ति के फर्क को समझना होगा। रंग गुलाल होली पर और
आतिशबाजी दीवाली पर ही अच्छी लगती है, लेकिन क्या ये कहना ठीक होगा कि माता की
भक्ति इन नौ दिनों में ही अच्छी लगती है? भक्ति का भी कोई सीज़न हो सकता है क्या? भक्ति के साथ साथ
उत्सव का मिलना भी हमारे देश की परंपरा रही है। गणेशोत्सव जैसी परंपरा की शुरूआत
तिलक ने इसी परंपरा के तौर पर की थी। माता की उपासना के लिए चैत्र और शरद ऋतु की
नवरात्र का महत्व तो हमारी वैदिक परंपरा का हिस्सा है यानि बहुत पुरातन है। इसमें
उपवास और उपसाना की विधियों पर भी काफी कुछ लिखा गया है। बदलते दौर में मंदिरों
में इन दिनों में, आस्था का अचानक से बढ़ जाना भीड़ का सबब बन रहा है। मंदिरों में भी मन्नतों
का बोझ बढ़ता रहता है। ऐसे मौकों पर मंदिर जाने से जीवन ज्यादा सुखमय होगा और
भक्ति के ज्यादा सुंदर परिणाम और फल मिलेंगे कि धारणा ने भी आस्था के सैलाब को
मंदिरों की चौखट पर खड़ा किया है।
आस्था पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता लेकिन
किसी विशेष समय और विशेष स्थान पर भीड़ लगाकर माता को प्रसन्न करने की गलतफहमी
दिमाग से निकालनी होगी। इसे आस्था नहीं कह सकते क्यूं आस्था समय से नहीं बांधी जा
सकती। माता की प्रसन्नता इन हादसों में तो कतई नहीं होगी जो आए दिन मंदिरों में
देखने को मिलते हैं। मंदिरों पर मन्नतों के साथ साथ भीड़ का बोझ भी समस्या को बढ़ा
देता है। ऋतु परिवर्तन के साथ त्यौहार तो मनाए जा सकते हैं लेकिन ईश्वर को मनाने
के लिए 9 दिनों की समय सीमा बांधने पर स्वयं विचार करिए। कोई कहे कि आस्था बढ़ जाती
है तो भी गलत बात है, क्यूंकि ईश्वर पर आस्था और विश्वास कोई कम या ज्यादा होने
वाली बात नहीं है। माता का प्रेम आप पर सिर्फ नौ दिन बरसता है इस बात को भी दिमाग
से निकालिए। वो मां है नौ दिन नहीं, नौ महीने नहीं हमेशा आपसे प्रेम करेगी। उसकी
भक्ति कहकर भीड़ की धक्का मुक्की में मासूमों को मत कुचलिए। नौ दिनों तक अच्छे काम
करने और बुरे कामों को छोड़ने को भक्ति मत कहिए। मैं विश्वास से कहता हूं कि मां
आज उत्सव के माहौल में बहुत भारी मन से आपकी भक्ति को स्वीकार कर रही होगी।